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( २०५ ) व्वा तंजहा-उडदिसिपमाणाइक्कमे अहोदिसिपमाणाइक्कमे तिरिय दिसि पमाणाइक्कमे खत्तवुड्ढी सइअन्तरद्धा ॥
भावार्थ-पंचम अणुव्रत के पश्चात् छठे दिग्वत के पांच अतिचार जानने चाहिएं परन्तु आचरण न करना चाहिए । जैसेकि
१ उर्ध्वदिशापरिमाणातिकमातिचार-यावन्मात्र ऊर्ध्व दिशामें जाने का परिमाण किया गया हो उसको अतिक्रम करना प्रथम अतिचार है।
२ अधोदिग्परिमाणातिक्रम अतिचार-नीची दिशा में यावन्मात्र जाने का परिमाण किया गया हो, उस परिमाण को अतिक्रम करना इस व्रत का दूसरा अतिचार है।
'३ तिर्यक् दिग् परिमाणातिक्रम अतिचार-यावन्मात्र तिर्यग् दिशा में गमन करने का परिमाण किया हो । जैसेकि-अपने नगर से चारों ओर हज़ार. २ योजन वा कोस तक जानेका परिमाण कर लिया हो परन्तु फिर उस परिमाण का अतिक्रम कर जाना इस व्रत का तीसरा अतिचार है।
४ क्षेत्र वृद्धि-यावन्मात्र परिमाण किया गया हो उस परिमाण में परस्पर न्यूनाधिक कर लेना । जैसेकि-पूर्वदिशा में जाने का सौयोजन का परिमाण किया गया हो और सौ ही योजन पश्चिम दिशा में जाने का परिमाण हो परन्तु पूर्व दिशा में विशेष काम जानकर उस के ड्योढ़े योजन कर लेने और पश्चिम में पच्चास ही योजन रख लेने । इस प्रकार करने से उक्त बत में दोप लगता हैं। क्योंकि यह एक प्रकार का कुतर्क है।
५स्मृति अन्तर्धान अतिचार-यदि गमन करते समय स्मृति विस्मृत हो जाए और उस शंका में आगे चला जावे तव भी उक्त व्रत में दोष लगता है। क्योंकि-स्मृति के विस्मृत होजाने पर भी आगे चलते जाना व्रत को मलिन करता है । अतएव उक्त पांचों दोषों के परिहार पूर्वक इस गुणव्रत को शुद्धतापूर्वक पालन करना चाहिए।
उपभोगपरिभोगगुणवत-इसगुणव्रत में खान पान और व्यापारादि का चर्णन किया गया है। जहां तक वन पड़े गृहस्थ को योग्य है कि वह इस प्रकारका भोजन न करे जो सचित्त और बहु हिंसास्पद हो । क्योंकि-भोजन करने का वास्तव में यह उद्देश है कि-शरीर रहे । सो शरीर को भाटक देना तो एक प्रकार का सुयोग्य कर्तव्य है किन्तु शरीर का सेवक बन जाना और उसके लिए नाना प्रकार के पापोपार्जन करने तथा स्वादु पदार्थों का ही अन्वेषण करते रहना यह कदापि प्रशंसनीय नहीं है। अतएव प्रथम मद्य और मांस का सर्वथा परित्याग कर देना चाहिए क्योंकि-मद्य और मांस के सेवन से प्रायः