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( १४५ ) सत् तथाविधलब्धिविशेषादत्रटितं तञ्चतन्महानसं च-भिक्षालब्धं भोजनमक्षीणमहानसं तदस्ति येषां ते तथा" अर्थात् अक्षीण महानसशक्ति जिस से एक सामान्य भोजन द्वारा सहस्रों पुरुपों की तृप्ति की जा सकती है और, भूल के भोजन में टि नही होती ये तप के माहात्म्य से उत्पन्न होती है । इतनाही नहीं किन्तु साथही वैक्रिय की लब्धिभी उत्पन्न होजाती है जिसके द्वारा मनोकामनानुसार अनेक रूपों की रचना की जा सकती है। जैसा रूप बनाने की इच्छा हो वैसा ही रूप बनाने की शक्ति उत्पन्न हो जाती है । एवं मुनि विद्याचारण लब्धि भी उत्पन्न कर लेता है जिसके द्वारा आकाश में गमन करने की शक्ति उत्पन्न हो जाती है तथा जंघाचारण आकाशगामिनी इत्यादि शाक्तयां जो मुनि में उत्पन्न होती हैं वे सब तपःकर्म का ही माहात्म्य है।
तात्पर्य इतना ही है कि कर्म क्षय करने के लिए दो स्थान प्रतिपादन किये हैं स्वाध्याय और ध्यान । इन्ही स्थानों से आत्मा निर्वाण पद की प्राप्ति कर लेता है।
यद्यपि मुनि धर्म के क्रियाकाण्ड की सहस्रों गाथायें वा श्लोक पूर्वाचार्यों ने प्रतिपादन किये हैं तथापि वे सब गद्य वा पद्य काव्य उक्त मुनि के २७ गुणों के ही अन्तर्भूत होजाते है।
औपपातिक सूत्र में श्री श्रमण भगवान् महावीर खामी के साथ रहनेवाले मुनि मण्डल का वर्णन करते हुए सोलहवें सूत्र में लिखा है। तथा च पाठः
तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवो महापरिस्स अंतेवासी बहवे थेरा भगवंतो जातिसंपएणा कुलसंपएणा वलसंपण्णा ओसी तेअंसी वच्चंसी जसंसी जियकोहा जियमाणा जियमाया · जियलोभा जियइंदिया जिअणिद्दा जिअपसिहा जीवित्रास मरण भयविप्पमुक्का वयप्पहाणा गुणप्पहाणा करणप्पहाणा चरणप्पहाणा णिग्गहप्पहाणा णिच्छयप्पहाणा अजवप्पहाणा मद्दवप्पहाणा लाघवप्पहाणा खतिप्पहाणा मुत्तिप्पहाणा विजाप्पहाणा मंतप्पहाणा चेयप्पहाणा बंभप्पहाणा नयप्पहाणा नियमप्पहाणा सच्चप्पहाणा सोमप्पहाणा चारुवण्णा लज्जातवस्सी जिइंदिया सोही अणियाणा अप्पुस्सुत्रा अवहिल्लेसा अप्पडिलस्सा सुसामएणरयादंता इण मेव णिग्गंथं पावयणं पुरो काउं विहरति ॥ ।
___ वृत्ति-"साधुवर्णक गमान्तरमेव-तत्र "जाइ संपन्न" ति उत्तममातृकपक्षयुक्ता इत्यवसेयम् । अन्यथा मातृकपक्षसंपन्नत्वं पुरुषमात्रस्यापि स्यादिति