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( १४४ ) अवयव औषधि रूप में परिणत हो रहे हैं यह सव शक्तिएं तप के माहात्म्य से प्रकट होजाती हैं । तथा कुष्टबुद्धि-जिस प्रकार कुष्टक में धान्यादि पदार्थ सुरक्षित रह सकते हैं उसी प्रकार जिनकी बुद्धि कुष्टक के समान हो गई है। यावन्मात्र गुर्वादि से ज्ञान सीखा जाता है वह धारणाशक्ति द्वारा विनश्वर नहीं होता । वीजवुद्धि-जिस प्रकार वट वृक्ष का चीज विस्तार पाता है ठीक उसी प्रकार प्रत्येक शब्द के निर्णय करने में वृद्धि विस्तार पाती है। पटबुद्धि-जिस प्रकार मालाकार अपने आराम से यावन्मात्र वृक्षादि, पुष्प वा फलादि गिरते हैं तावन्मात्र ही वह ग्रहण करलेता है। ठीक उसी प्रकार यावन्मात्र श्री गुरु के मुख से सूत्र वा अर्थादि के सुवाक्य निकलते हैं वह सर्व मालाकारवत् ग्रहण कर लेता है । तथा तप के महात्म्य से "संभिन्नश्रोतार" भिन्न२प्रकार के शब्दों को युगपत् सुनने वाले तथा “संभिन्नानिवा' शब्देन व्याप्तानि शब्द ग्राहीणि, प्रत्येक वा शब्दादि विषयैः श्रोतांसि-सर्वेन्द्रियाणि येषां ते" जिनकी सर्व इन्द्रियों के श्रोत शब्द सुनने की शक्ति रखते हैं अर्थात् जिनकी सर्व इन्द्रियें सुनती हैं क्योंकि-तप के महात्म्य से शरीर के यावन्मात्र रोम हैं वे सर्व शब्द सुनने की शक्ति रखते हैं। तथा पदानुमारिणालब्धि एक पद के उपलब्ध हो जाने से फिर उसी के अनुसार अनेक पदों को उच्चारणकर देना यह सव शक्ति तप कर्म के करने से उत्पन्न हो जाती हैं। क्षीराश्रवा-क्षीरवन्मधुरत्वेन श्रोतृणां कर्ण मनः सुखकरं वचनमाश्रवन्ति-क्षरन्ति ये ते क्षीराश्रवाः" जिस लब्धि के महात्म्य से उस मुनिका वचन श्रोतागण को क्षीर (दूध ) के समान मधुर, मन और श्रोतन्द्रिय को सुख देने वाला होता है । मध्वाश्रव-"मधुवत्सर्वदोषोपशमनिमित्तत्वादाल्हादकत्वाच्च तद्वचनस्य नीरावे भ्यस्ते भेदेनोक्ताः " जिस मुनि का वचन मधुवत् सर्वदोषों के उपशम करने वाला और प्रसन्नता उत्पन्न करने वाला अर्थात् जिस वाक्य के सुननेसे आत्मा के आभ्यंतरिक दोप नष्ट होजाते हैं और आत्मा में सम भाव उत्पन्न होता है उसी को मध्वाश्रवलब्धि कहते हैं केवल आंतरिक दोपों के दूर करने की शक्ति होने से ही क्षीराव लब्धि से इसका पृथक् उपादान किया गया है। सर्पिराश्रव-सर्पिराश्रवास्तथैव नवरं श्रोतृणां स्व विषये स्नेहातिरेक सम्पादकत्वात् क्षीराश्रव मध्वाश्रवेभ्यो भेदेनोक्ताः
जिस मुनि के वचन से अति स्नेह और धर्मराग उत्पन्न हो अथवा जिस मुनि का वाक्य 'धृत के समान स्नेह और धर्म राग का उत्पादक हो उसे सर्पिराश्रव लन्धि कहते हैं।
भोजनमक्षीणमहानसं–महानसम्-अन्नपाकस्थानं तदाश्रितत्त्वाद्वाऽन्नमपिमहानसमुच्यते, ततश्चाक्षीणं-पुरुपशतसहस्त्रेभ्योऽपिदीयमानं स्वयमभुक्तं