SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 140
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ११६ ) द्वितीय श्रुत के १० वर्ग हैं । उन'वर्गों में फिर आख्यायिका उपाख्यायिका इत्यादि संख्या करने पर साढ़े तीन करोड़ धर्मकथाएँ है और इस सूत्र के ५७६००० पद हैं । इस सूत्र का उपांग जंवूद्वीपप्रज्ञप्ति सूत्र है। इस सूत्रमें समग्र जंबूद्वीप का वर्णन पाया जाता है। प्रसंगवशात् भरत चक्रवर्ती की दिग्विजय का वर्णन करते हुए भारतवर्ष के दही खंडों का वर्णन कर दिया है । अवसपिणी और उत्सर्पिणी कालचक्रका वर्णन करते हुए श्री ऋषभदेव प्रभु का जीवन चरित भी दिखलाया गया है। समाप्ति के समय ज्योतिप चक्र भी वर्णन कर दिया है अतएव इसका अध्ययन अवश्यमेव करना चाहिए। ७ उपासकदशाङ्ग सूत्र-इससूत्र में श्री वीर प्रभुके दश उपासकों के नगर, वनखंड, स्वामी आचार्य, व्रतग्रहण, श्रमणोपासक की पर्याय, एकादश प्रतिमायें, (प्रतिज्ञाएं । समाधिमरण देवगति, पुनः सुकुल में उत्पत्ति, धर्म-प्राप्ति. मोक्षगमन इत्यादि विषय विस्तारपूर्वक वर्णित हैं । साथ ही श्रावकों की दिनचर्या का भी दिग्दर्शन कराया गया है। 'श्रावक' शब्द तो अवतसम्यग्दृष्टि और देशब्रतिगुणस्थानों के लिये रूढी से प्रचलित हो रहा है परन्तु 'श्रमणोपासक' शब्द केवल देशव्रति गृहस्थ के लिये ही सूत्र में प्रयुक्त हुआ है । सो उक्त सूत्र में, श्री भगवान् महावीर स्वामी के जो दश उपासक व्रत और प्रतिमा के धारण करने वाले हुए है, उनकी धार्मिक जीवनी का दिग्दर्शन कराया गया है । अतएव इस सूत्र का एक श्रुतस्कन्ध और दश अध्ययन हैं । दश ही इसके उद्देशन काल हैं । एकादश लक्ष और ५२ सहस्त्र (११५२०००) इस सूत्र के पद है और चन्द्रप्रज्ञप्ति इस सूत्र का उपांग है जिस में प्राय सूर्यप्रशप्ति के समान ही ज्योतिप चक्र का वर्णन किया गया है । गृहस्थ धर्म के पालन करने वाली व्यक्तियों को उक्त सूत्रका अभ्यास अवश्यमेव करना चाहिए जिससे उनके धार्मिक जीवन में परम सहायता और उत्साह तथा दृढ़ता की प्राप्ति हो क्योंकि-गृहस्थ धर्म के १२ व्रत और एकादश प्रतिज्ञायें इस में पूर्णतया वार्णित हैं। ८ अंतकृद्दशाङ्ग-सूत्र--इस सूत्रमें जिन व्यक्तियों ने अन्त समय केवलज्ञान पाकर निर्वाणपद प्राप्त किया है उन जीवों के नगर. राज्य, मातापिता वा सांसारिक ऋद्धि, वनखंड, आचार्य, दीक्षा. भोगपरित्याग, तपोकर्म, प्रत्याख्यान, श्रुतग्रहण इत्यादि विपयों का विवरण दिया हुआ है । अन्तकृत् उन्हें कहते हैं जिन्हों ने संसार छोड़ कर दीक्षा ग्रहण की और फिर श्रुताध्ययनके पश्चात् परम समाधिरूप तपोकर्म किया, उसके द्वारा कर्माश को जलाकर केवलज्ञान प्राप्त किया अपितु विशेष आयुके न होने से अपने प्राप्त किये हुए
SR No.010277
Book TitleJain Tattva Kalika Vikas Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages335
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy