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उत्तर में श्री भगवान् ने प्रतिपादन किया, जयंती ! बहुत से आत्मा बलवान्
और बहुत से श्रात्मा निर्वल ही अच्छे होते हैं । इस प्रकार कहे जाने के पश्चात् फिर जयंती ने शका उत्पन्न की कि-हे भगवन् ! यह बात किस प्रकार सिद्ध होसकती है ? इस के समाधान में श्री भगवान् ने फिर प्रतिपादन किया कि हे जयंती ! न्याय पक्षी वा न्याय करने वाले जो धर्मरूप श्रात्माएं हैं वे बलवान ही अच्छे होते है क्योंकि उनके बलयुक्त होने से पाप कर्म निर्वल होजायगा जिस से बहुत से प्राणियों को सुख प्राप्त हो सकेगा । जव अधर्मात्माओं का बल बढ़ जायगा तव पाप कर्म ही बढ़ता रहेगा । अतएव धर्मात्मा लोग बलवान् अच्छे होते हैं और इसके प्रतिकूल पापात्मा निर्वल ही अच्छे होते है क्योंकि उनके निर्बल होने से पापकर्म भी निर्वल होजायगा। इस प्रकार प्रत्येक प्रश्नोत्तर सरलतया प्रतिपादन किया गयाहै। इस सूत्रके २८८०००पद है। प्रत्येक पदमें प्रश्नोत्तर भरे हुए है । प्रायः सर्व प्रकार के प्रश्नों के उत्तर श्री वीर भगवान् के मुखार्विद से निकले हुए है । इसलिये प्रत्येक प्रश्नोत्तर आत्मिक शांति का उद्बोधक है और अलंकार से युक्त है । फिर इसी सूत्र का उपांग सूर्यप्रज्ञप्ति है । जिस में सूर्य की गति आदि का वर्णन है । इसे ज्योतिषका शास्त्र माना जाता है । अतएव व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र योग्यतापूर्वक प्रत्येक प्राणी को पठन करना चाहिए ।
६ शाताधर्मकथांगसूत्र--इस सूत्रमें ज्ञाता-दृष्टांतादि के द्वारा धर्मकथा का वर्णन किया गया है । इस सूत्र के दो श्रुत स्कंध हैं। प्रथम श्रुत के १६ अध्याय हैं। प्रत्येक अध्ययन शिक्षा से भरा हुआ है। साथही प्रत्येक अध्ययन का उपनय ठीक प्रकार से प्रतिपादन किया गया है जैसेकि श्री भगवान महावीर स्वामी से श्रीगौतम स्वामी जी ने प्रश्न किया कि-हे भगवन् ! जीव लघु । हलका) और गुरु (भारी) किस प्रकार होता है ? इसके उत्तर में श्री भगवान् ने प्रतिपादन किया कि-हे गौतम ! पाप कर्मो के करने से जीव भारी हो जाता है फिर उन्हीं पापकर्मों से निवृत्त हो जाने से जीव हलका होजाता है । जिस प्रकार अलावू ( तूंवा ) मिट्टी और रज्जु के बंधनों से भारी होकर जल मे डूब जाता है परंतु जव उस तूवे के बंधन टूट जाएँ तव वह निर्वधन होकर जल के ऊपर आजाता है ठीक इसी प्रकार हिंसा, असत्य, चोरी, मैथुन .
और परिग्रह, क्रोध, मान, माया और लोभ, राग तथा द्वेष, क्लेष, आभ्याख्यान (कलंक ) परपरिवाद ( निंदा ) पिशुनता (चुगली) रति और अरति, माया, मृपा और मिथ्यादर्शनशल्य इन पाप कर्मों के करने से जीव भारी होजाता है। जव उक्त पापकर्मों से निवृत्ति हो जाती है तव जीव तूवकवत् मुक्तवंधन होकर निर्वाणपदकी प्राप्ति करलेता है । इस प्रकार प्रथम श्रुत स्कंध में १६ धार्मिक दृष्टान्त वर्णन किये गए हैं।