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जैसेकि आचार्य आप शुद्धाचरण धारण करे और अपने शिष्य को संयम समाचारी का ठीक २ वोध करावे यथा- पंचानवाद्विरमणं पंचेंद्रियनिग्रहः कपायजयः दंडत्रयविरतश्च संयमः सप्तदश विधः ॥ १ ॥ अर्थात् हिंसा, असत्य, चोरी, मैथुन और परिग्रह इन पांचों आश्रवों की विरति करना और श्रोतेन्द्रिय चतुरिन्द्रिय घ्राणेद्रिय रसेन्द्रिय तथा स्पर्शेन्द्रिय इनका निग्रह करना फिर क्रोध, मान, माया और लोभ का जीतना तथा मन वचन और काया का वश में करना यह सर्व १७ प्रकार के संयम के भेद हैं। आचार्य स्वयं इन भेदों पर आचरण करता हुआ फिर इनका पूर्ण वोध अपने शिष्य को करावे । इसी प्रकार १२ प्रकार के तप के भेदों को भी अपने शिष्य को सिखलाता हुआ आप भी यथाशक्ति तप धारण करे तथा जो व्यक्ति तप करने से हिचकिचाते हों उन को तपका माहात्म्य दिखलाकर तप में उत्साहित करे। सूत्रों मे तप के १२ वारह भेद वर्णन किए गए हैं जैसे कि- अनशन १ ऊनोदरी २ भिक्षाचरी ३ रसपरित्याग ४ कायक्लेश ५ और प्रतिसंलीनता ६ प्रायश्चित्त ७ विनय ८ वैयावृत्त्य ६ स्वाध्याय १० भ्यान ११ और कायोत्सर्ग १२ इनका सविस्तर स्वरूप श्रपपातिकादि सूत्रों से जानना चाहिये । सो श्राचार्य शिष्यको उक्त तपोंके विधि विधानादि से परिचित कराए । तप समाचारी के पश्चात् फिर आचार्य गण समाचारी का शिष्य को वोध कराए जैसे कि गण के उपाधिधारियों के क्या २ कर्तव्य हैं तथा अन्य गण के साथ किस प्रकार वर्त्ताव करना चाहिए किस प्रकार अन्य गणके साथ वंदनादिका संभोग जोड़ना चाहिए और किस प्रकार अन्यगण से पृथक् हो जाना चाहिए वा स्वगण में जो मुनियों के कई कुल होते हैं उनके साथ किस प्रकार वर्ताव करना चाहिए वा जो स्वगण मे क्रियाकांड की शिथिलता आई हो उसे किस प्रकार दूर करना चाहिए अथवा अपनेही गण में जो साधु प्रत्युपक्षणादि मे शिथिल होजावें तो उनको किस प्रकार सावधान करना चाहिए । इसी प्रकार स्वगण में जो वाल दुर्बल ग्लानादि युक्त साधु हैं उनकी किस प्रकार वैयावृत्य ( सेवा ) करनी चाहिए इस प्रकार की गण सामाचारी को आचार्य श्राप धारण करता हुआ अपने शिष्य को यथाविधि शिक्षित करे जब गए समाचारी का पूर्ण बोध होजावे तो फिर एकाकि विहार प्रतिमा की समाचारी का शिष्य को ज्ञान कराए क्योंकि गणसे पृथक् होकर ही एकल्ल• विहार प्रतिमाका ग्रहण हो सकता है वा साधु की १२ प्रतिमा [ प्रतिज्ञाओं ] के धारण करने की यथाविध विधि का शिष्य को वोध कराए। इतनाहीं नहीं किन्तु उक्त समाचारी को आप धारण करे और अपने शिष्यों को धारण कराए, कारण कि सूत्रोक्त विधि से यदि एकल्लविहार प्रतिमा धारण कीजाए तो परमनिर्जराका कारण होता है अतएव आचार्य सर्व प्रकार से एकल्ल विहार प्रतिमा