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( ८६ ) सुयं मे आउसं तेणं भगवया एवमक्खायं इह खलु थेरेहिं भगवतेहिं अठविहा गणि संपया पण्णत्ता ।।
अर्थ हे आयुष्मन् शिष्य ! मैंने उस श्री भगवान् को इस प्रकार प्रतिपादन करते हुए सुना है कि इस जिनशासन में स्थविर भगवंतों ने आठ प्रकार की गणि (आचार्य) संपत् प्रतिपादन की है।
उक्त वचन को सुनकर शिष्यने प्रश्न किया । अव इस विषय में सूत्रकार कहते हैं।
कयरा खलु अठविहा गणिसंपया पएणत्ता ।
अर्थ-शिष्य ने प्रश्न किया कि-हे भगवन् ! कौनसी आठ प्रकार की गणि संपत् प्रतिपादन की गई है ?
शिप्य के प्रश्न का गुरु उत्तर देते हैं। अव सूत्रकार इस विपय में कहते हैं। इमा खलु अठविहा गणिसंपया पएणत्ता तंजहा
अर्थ-गुरु कहते हैं कि हे शिष्य ! आठ प्रकारकी गणिसंपत् इस प्रकार प्रतिपादन की गई है जैसे कि
अव सूत्रकार आठ संपत् के नाम विषय में कहते हैं।
आयार संपया १ सुय संपया २ सरीर संपया ३ वयण संपया ४ वायणा संपया ५ मइ संपया ६ पोग संपया ७ संगाह परिणाम अठमा ॥८॥
अर्थ-श्राचार संपत् १ श्रुतसंपत् २ शरीर संपत् ३ वचन संपत् ४ वाचना संपत् ५ मति संपत् ६ प्रयोग संपत् ७ और संग्रह परिज्ञा ॥८॥
अव सूत्रकार आचार संपत् के विषय में कहते हैं ।
सेकिंतं आयार संपया ? आयार संपया चउबिहा पएणत्ता तंजहासंजम धुवजोग जुत्ते यावि भवइ १ असंप्पगाहिऽप्पा २ अणिययवत्ती ३ बुढि सीलेयावि भवइ ४ । सेतं आयार संपया।
अर्थ-शिप्यने प्रश्न किया कि हे भगवन् ! आचार संपत् किसे कहते हैं ? इसके उत्तर में गुरु कहने लगे कि हे शिष्य! आचार संपत् चार प्रकार की वर्णन की गई है जैसे कि-संयम में निश्चल योग युक्त होवे १ आचार्य की आत्मा अभिमानरहित होवे २ अनियतविहारी होवे ३ चंचलता से रहित वृद्धों जैसा स्वभाव होवे ४ यही आचार संपत् के भेद हैं। साराँश-प्रथम संपत् सदाचार ही है। जो आत्मा आचार से पतित हो गया है वह आत्मिक गुणों से भी