________________
३४ दीप्तिमान्-श्राचार्य तेजस्वी होना चाहिए, जिस आत्मा में सत्य और ब्रह्मचर्य पूर्णतया निवास करते हैं,वह आत्मा तेजस्वी होजाता है, तथा यावन्मात्र वल हैं, उनमें श्रद्धा का परमोत्कृष्ट वल माना जाता है अतएव श्रद्धा सत्य और ब्रह्मचर्य जव इनका एक स्थान पर पूर्णतया निवास हो जावे तब उस आत्मा का आत्मिक बल बढ़ जाता है जिस कारण कोई भी वादी अाक्रमण नहीं कर सकता और ना ही उसके तेज को सहन कर सकता है।
३५ शिव-श्राचार्य सघ पर आए हुए कष्ट के निवारण करने में समर्थ हो क्योंकि प्रात्मशक्ति द्वारा तथा उपदेशादि द्वारा जिस प्रकार श्रीसंघ में शांति हो सके उसी प्रकार आचार्य को करना चाहिए, उपद्रवों का नाश करना और श्री संघ में शांति स्थापन करना आचार्य का गुण है क्योंकि शांति के होने से ही शान दर्शन और चारित्र की वृद्धि हो सकती है । इतना ही नहीं किन्तु अनेक आत्माएँ धर्म पथ में लग सकती हैं। अपना तथा पर का फिर वे कल्पाण भी कर सकती हैं । इस लिए यह गुण भी आचार्य में अवश्य होना चाहिए।
३६ सौम्यगुणयुक्त-आचार्य सौम्यगुणयुक्त होना चाहिए-अर्थात् सौम्यगुणयुक्त होकर साधुवर्ग को सम्यक्तया शिक्षित करे-इस प्रकार पूर्वोक्त छत्तीस गुणों से युक्त होकर आचार्य चार क्रियाओं से भी युक्त होवे-जैसेकि-सारणा १ वारणा २ चोदना ३ और प्रातचोदना ॥ सारणा-साधुओं को नैतिक क्रियाओं की संस्मृति कराता रहे । वारणा-यदि कोई साधु अतिचार वा अनाचार सेवन करे तो उसे सम्यक् शिक्षा द्वारा हटा देवे।
चोदना-साधुओं को प्रमाद के हटाने की प्रेरणा करता रहे प्रति चोदना यदि कोई मृदु वाक्यों से शिक्षा न मानता हो तो उसे कठिन वाक्यों से भी शिक्षा देवे क्योंकि-श्राचार्य की इच्छा उसके आत्मा की शुद्धि करने की है। परन्तु उक्त क्रियायें आचार्य राग द्वेष के वश होकर कदापि न करे इस प्रकार पूर्व सूरिविरचित ग्रंथों में प्राचार्य के छत्तीस गुण कथन किए गए हैं परन्तु दशाश्रुतस्कंधसूत्र के चतुर्थाध्याय में प्राचार्य की आठ संपत् वर्णन
की गई हैं संपत् दो प्रकार से वर्णित है जैसे कि द्रव्य संपत् और भाव संपत् । 'द्रव्य संपत् तो प्राय प्रत्येक गृहस्थ के पास होती है परन्तु वह चिरस्थायी नहीं है परंच जो भाव संपत् है, वह सदैव आत्मा के साथ ही रहता है इसीलिए उस संपत् को प्राचार्य की संपत् प्रतिपादन किया गया है।
भव्यजनों के प्रतिवोध के लिये और सूत्र की महत्ता दिखलाने के लिये श्री दशाश्रुतस्कंधसूत्र के चतुर्थाध्ययन को ही इस स्थान पर उद्धृत किया जाता है, जैसे कि