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भिन्न २ प्रकार से मानते हैं जैसे कि कोई २ तो पद् दर्शन इस प्रकार से मानता है कि पूर्वमीमांसा १ और उत्तरमीमांसा २ निरीश्वर सांख्य ३ और सेश्वरसांख्य४पोडश पदार्थ के मानने वाला नैयायिक ५ और सप्त पदार्थ के मानने वाला नैयायिक ६ इस प्रकार से दर्शन पद होते है । कोई इस प्रकार से मानता है कि चौद्ध मत की चार शाखाएं हैं जैसे कि सौत्रान्तिक १ वैभाषिक २ योगाचार ३ और माध्यमिक ४ जैन ५ और लोकायतिक ६ इस प्रकार पट् दर्शन होते हैं तथा पूर्वोक्त और यह पट् दर्शन मिल कर सर्व दर्शन द्वादश होते हैं । अपितु कोई २ तो यह भी कहता है कि-मीमांसक १ सांख्य २ नैयायिक ३ बौद्ध ४ जैन ५ और चार्वाक् ६ इस प्रकार षट् दर्शन होते हैं। परं च प्रकृत निबंधकार ने तो बौद्ध, नैयायिक, सांख्य, जैन, वैशेषिक और जैमिनीय - इस प्रकार पद्दर्शन प्रतिपादन किये हैं, किन्तु - सर्व दर्शन संग्रह और सर्व शिरोमणि आदि निबंधों में तो अनेक दर्शन कथन किये गए हैं अर्थात् यह नियम नहीं देखा जाता कि केवल दर्शन इतने ही होते हैं । इसी वास्ते आचार्य के लिये“परसमयवित्” शब्द लिखा गया है कि वह जैनमत के अतिरिक्त परमतके शास्त्रों का भी भलीप्रकार से परिचित हो, जैसे कि षट्दर्शनों से चाहिर इसाई और मुसलमान आदि अनेक प्रकार के मत प्रचलित हो रहे हैं । उनके सिद्धान्तोंको भी जानना चाहिए, तथा सूक्ष्म बुद्धिसे अन्वेषण करना चाहिए । अतएव यावन्मात्र परमत के सिद्धान्त हों या उनके सिद्धान्तों की शाखाएं वन गई हों सबका भलीभांति बोध होना चाहिए । षट् दर्शनों के विषय में इसलिए नहीं लिखा गया है. कि- इन दर्शनों की पुस्तकें कतिपय भाषाओं में मुद्रित हो चुकी हैं अतएव पाठकगण उन पुस्तको से वा सूयगडाङ्ग-सूत्र, स्याद्वाद मंजरी आदि जैनग्रथों से उक्तदर्शनों के सिद्धांतों का भली भांति वोध कर सकते हैं । इस स्थान पर तो केवल इतना ही विषय है कि आचार्य को उक्त मतोंके सिद्धान्तों का भी जानकार होना चाहिए ।
३३ गांभीर्य्य - इस गुण में आचार्य की गंभीरता सिद्ध की गई है, क्योंकि जिसमें गांभीर्य गुण होता है. उसी में अन्य गुण भी श्राश्रित होजाते है, वही श्राचार्य अन्य व्यक्तियों की आलोचनादि को सुनने के योग्य होता है वही श्राचार्य अन्य आत्मा की शुद्धि कराने की योग्यता रखता है जो उस प्रायश्चित्ती का दोष सुनकर किसी और के आगे प्रकाश नहीं करता यही उसकी गंभीरता है । कारण कि जब वह स्वयं गंभीर होगा तभी वह कष्टों को सहन करता हुआ अन्य आत्माओं को धर्म पथ मे स्थापन कर सकेगा, और आप भी पवित्र गुणों का आश्रयीभूत वन जायगा । अतएव आचार्य को द्वेप बुद्धि से किसी का मर्म प्रकाशित न करना चाहिए