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( ६० ) प्रायः पतित हो जाता है अतः सूत्रकारने प्रथम संपत् सदाचार कोही प्रतिपादन किया है परन्तु सदाचार के मुख्यतया चार भेद वर्णन किये गए हैं जैसे किअपने ग्रहण किये हुए संयम के भावों में योगों को निश्चल करना चाहिए । अति प्रतिष्ठावा प्रशंसा हो जाने के कारण अहंकार न करना चाहिए २ परोपकार के लिये एक स्थान पर ही न वैठना चाहिये अर्थात् देश और प्रदेश में अप्रतिवद्ध हो कर विचरना चाहिए ३ चंचलता वा चपलता को छोड़कर वृद्धों जैसा स्वभाव धारण करना चाहिए ४ इस कथन का यह सारांश है कि-यदि लघु अवस्था में आचार्य पद की प्राप्ति हो गई है तो फिर स्वभाव तो वृद्धों जैसा अवश्य होना चाहिए अर्थात् गम्भीरता विशेप होनी चाहिए ।
अव सूत्रकार श्रुतसंपत् विपय कहते हैं।
से किंतं सुंय संपया? सुय संपया चउव्विहा पण्णत्ता तंजहा-वहु सुययावि भवइ १ परिचिय सुत्ते यावि भवइ २ विचित्त सुत्ते यावि भवइ ३ घोस विसुद्धि कारए यावि भवइ ४ सेतं सुय संपया॥२॥ ____ अर्थ-शिष्यने प्रश्न किया- हे भगवन् ! श्रुतसंपत् किसे कहते हैं ? गुरु उत्तर में कहने लगे कि हे शिष्य ! श्रत संपत् चार प्रकार से प्रतिपादन की गई है जैसे कि बहुश्रुत हो १ परिचित श्रुत हो २ विचित्र प्रकार के श्रुतों (सूत्रों) का ज्ञाता हो ३ विशुद्ध घोष से सूत्र उच्चारण करने वाला हो । यही श्रत संपत् है ॥
__सारांश-शिष्यने प्रश्न किया-हे भगवन् ! श्रुत संपत् किसे कहते हैं ? इसके उत्तर में गुरु महाराज वोले, कि-आचार्य आचार संपन्न होता हुआ श्रत संपन्न भी हो अर्थात् परम विद्वान् हो किन्तु श्रुत संपत् चार प्रकार से वर्णन की गई है जैसे कि बहुत से सूत्रों का ज्ञाता हो उसी का नाम बहुश्रत है अर्थात् यावन्मात्र मुख्य २ सिद्धान्त हैं उनका सर्वथा वेत्ता होना चाहिए परन्तु सूत्र अस्खलित वा परिचित हों इस कथन का तात्पर्य यह है कि-प्रायः सूत्र सदैव काल स्मृति पथमें ही रहें, साथ ही विचित्र प्रकार के सूत्रों का ज्ञाता भी होना चाहिए जैसे कि-जैनमत के सूत्र वा जैनतर मत के सूत्र इन सर्व सूत्रों का भली प्रकार से विद्वान् होना चाहिए तथा जिस प्रकार से श्रोतागण को विस्मय हो उस प्रकार के सूत्रों का परिचित होवे । विचित्र शब्द के कई अर्थ किये जासकते हैं परन्तु मुख्य अर्थ इसका यही है कि स्वमत वा परमत के शास्त्रों का भली प्रकार से परिचित होवे। इतना ही नहीं किन्तु जब श्रत के