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________________ ( ७७ ) पृथग्भूतं सामान्यमसद् नास्ति खरविपाणवत् रासभङ्गवत् तर्हि विशेपमात्र एव पदार्थः ॥ ८ ॥ भा० व्यवहारनय विशेपात्मकरूप पर्यायस्वरूप वस्तु को स्वीकार करता है, उसका यह भी मन्तव्य है कि-विशेप से भिन्न सामान्यपदार्थ खर के विषाणों (सींग) के समान असद होता है । अव वह अपने सिद्धान्त को दृष्टान्त द्वारा सिद्ध करता है वनस्पतिं गृहाणेति प्रोक्तं गृहाति कोऽपि किम् विना विशेषान्नानादीस्तन्निरर्थकमेव तत् ॥६॥ एनमेवोदाहरति-यदा केनचिद्वक्त्रा कश्चिदादिष्टः भो ! त्वं वनस्पति गृहाणेति प्रोक्ने कथिते सति किं कोऽपि निम्बाम्रादीन् विशेपान विना गृह्णाति न कोऽपि गृह्णाति तत्तस्मात् कारणाद् ग्रहणाभावात्तत्सामान्य निरर्थकं निष्फलमेवेति ॥ ६॥ भा०-जैसे किसी ने कहा कि-हे आर्य ! पुत्र ! वनस्पति लाओ, तो क्या आम्र वा निम्बादि के नाम लिये विना वह किसी फल विशेष को ला सकता है ? कदापि नहीं, तव सिद्ध हुआ कि-विशेष के विना ग्रहण किये सामान्यभाव निर्थक ही होता है । अब उक्त ही विषय में फिर कहते हैं व्रणपिण्डीपादलेपादिके लोकप्रयोजने उपयोगो विशेषैः स्यात् सामान्ये नहि कर्हिचित् ॥ १० ॥ टीका-तथा च व्रणपिण्डीव्रणं मनुष्यादीनां शरीरे प्रहारादिजातक्षतं तस्मै पिण्डी पट्टिकादिकरणं तथा पादलेपः पादलेपकरणं तयोर्द्वन्द्वे आदिपदाच्चनुरज्जनादिके लोकानां जनानां प्रयोजन कार्य तस्मिन् विशेपैपर्यायैरुपयोगः साधनं स्याद्भवति सामान्ये सत्तामात्रे सति कहिचित् कदाचिदपि न कार्यसिद्धिर्भवतीत्यतो विशेप एव वस्तु ॥ १० ॥ __ भा०–मनुष्यादि के शरीर में प्रहारादि के लग जाने से पट्टिकादि करना तथा पादलेप करना आदि शब्द से चजुरंजनादि करना इत्यादि प्रयो. जनों के उपस्थित हो जाने पर विशेष भाव से ही कार्य सिद्ध हो सकेगा। अर्थात् जिस रोग के लिये जिस औपध का प्रयोग किया जाता है उस औषध का नाम लेने से ही वह औपधि प्राप्त हो सकेगी । केवल औषधि ही दे दो इतने ही कथन मात्र से काम नहीं चलेगा । अतः सिद्ध हुआ कि विशेष ही कार्य साधक हो सकता है। नतु सामान्य पदार्थ । अव व्यवहार नय के प्रति ऋजुसूत्र नय कहता है
SR No.010277
Book TitleJain Tattva Kalika Vikas Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages335
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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