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________________ ३५८ जैन कवियों के ब्रजभाषा प्रबन्धकाव्यों का अध्ययन दुःख पाता है और ज्ञानी उससे मुक्त रहता है ।" मोह आत्मा का बलवान् शत्रु है जो उसे संसार में संकट ग्रस्त रखता है ।" इसकी दासता ग्रहण कर शूरवीर कायरता, कर्मवीर निश्चेष्टता और अमीर फकीरपन धारण कर वन-वन भटकता है । वैर हिंसक और कुत्सित वृत्ति है । वैर भाव मनुष्य के साथ अनेक भवों तक बद्ध रहता है । इसी कारण वह अपने सहोदर तक की हत्या करने से नहीं चूकता और फिर उसको इतने से ही संतोष नहीं होता, वह वर-भावना को विस्मृत न कर अपने भाई का जन्म-जन्मान्तरों तक पीछा करता है, अवसर मिलते ही उस पर विपत्ति के बादल मँडराता है; उसके सम्मुख वेदना का जाल बिछा देता है, भले ही इसके बदले उसे कितने ही संतापों और कितनी ही दुर्गतियों में भटकना पड़े, जैसा कि 'पार्श्वपुराण' काव्य में । इस काव्य में वैर विषयक उपर्युक्त संदर्भ बड़ी मार्मिकता के साथ उद्घाटित हुए हैं । सारांश यह है जब तक चेतन इन अनात्म भावों में लिप्त रहता है, तब तक उसे स्वप्न में भी न सुख मिल सकता है और न सुगति या मुक्ति ही मिल सकती । ये शत्रु रूप हैं, इनको जीत लेने पर ही शिव-सम्पत्ति प्राप्त हो सकती है । इन मिथ्या भावों के परित्याग में ही प्राणी का कल्याण निहित है ।" आगे आत्मभाव द्रष्टव्य हैं । ज्ञान १. २. १. शील कथा, पृष्ठ ३६ । ४. ज्ञान वह सम्यक् दृष्टि है जिसके अभाव में कोटि-कोटि वर्षों की साधना हि मोह दशा अति भारी, काँपे नहीं जात निवारी | जीव मोह थकी दुष पावै, ग्यानी को तो नहीं भावै ॥ - यशोधर चरित्र, पद्य ४७६ । पार्श्वपुराण, पद्य ६७, पृस्ठ ३४ । ५. शतअष्टोत्तरी, पद्य ४३, पृष्ठ १५ । चेतन कर्म चरित्र, पद्य २३४-३८, पृष्ठ ७८ ।
SR No.010270
Book TitleJain Kaviyo ke Brajbhasha Prabandh Kavyo ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherBharti Pustak Mandir
Publication Year1976
Total Pages390
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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