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________________ नैतिक, धार्मिक एवं दार्शनिक परिपार्श्व ३५६ सफलीभूत नहीं होती । स्व-पर का विवेक कराने वाली शक्ति का नाम ज्ञान है | संचित अशुभ कर्मों का क्षय और भ्रम नाश ज्ञान के अभाव में नहीं होता । ज्ञान से क्रिया भिन्न नहीं है । 'स्व' को पहचानने की क्रिया का नाम ही ज्ञान है । इसी ज्ञान - किया के द्वारा मुक्ति सदैव सेवा में खड़ी रहती है । " जो स्वयं को पहचान लेता है, वही ज्ञानी है और उसकी क्रिया (साधना) में स्थिरता रहती है | ज्ञान और क्रिया का सम्यक् संयोग ही शिवपद या मोक्ष है, इसके बिना समस्त साधना दोषपूर्ण है । पौदगलिक पदार्थों में आसक्ति अविवेक स्वरूप और भ्रमात्मक है । ज्ञान ही इस आसक्ति का विनाशक है और आत्महित के लिए महौषधि है | ज्ञान- उपलब्धि आत्म-दर्शन की संवलिका है । उसी के द्वारा मानव स्थिरभाव से अनुभव - रस का पान करता है । इसके अनन्तर ध्यान को लीजिए । ध्यान ग्यानदीप तप तेल भरि, घर सोचे भ्रम छोर । या विध बिन निकसें नहीं, पैठे पूरब चोर ।' चित्त - विक्षेप से रहित होकर और एकान्त स्थान में बैठकर आत्मा के वीतराग, शुद्ध स्वरूप की भावना करने को अभ्यास कहते हैं । यही संवित्ति आत्मानुभूति या ध्यान है । इसी के द्वारा योगी जन मोक्ष सुख के कारण भूत भेद-विज्ञान को प्राप्त करते हैं । " १. २. ५. पार्श्वपुराण, पद्य ८१, पृष्ठ ५७ । सीता चरित, पद्य २२२३, पृष्ठ १२७ । ६. वही, पद्य २२२६, पृष्ठ १२७ । शतअष्टोत्तरी, पद्य ७९, पृष्ठ २४ । ४. पं० हीरालाल जैन : जैन धर्ममामृत, पृष्ठ २८० ।
SR No.010270
Book TitleJain Kaviyo ke Brajbhasha Prabandh Kavyo ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherBharti Pustak Mandir
Publication Year1976
Total Pages390
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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