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________________ नैतिक, धार्मिक एवं दार्शनिक परिपाव ३५७ नारी सदैव ही दुर्बुद्धि का परिचय देते हैं ; उन्हें रूप-कुरूप, गुण-अवगुण भी दिखायी नहीं देता। क्रोध से सुबुद्धि विचलित और कुबुद्धि विकसित होती है। जैसे घृत से अग्नि धधककर जल उठती है, वैसे ही क्रोध से मनुष्य धधककर जल उठता है। मनुष्य जब-जब क्रोध करता है, तब-तब ही वह कर्म-बन्धन में बंधता मद अहं का पर्यायवाची शब्द है। मदमस्त पुरुष अंधा होता है और जो अष्ट प्रकारी मद में चूर है, उसे तो कानों से भी कुछ सुनाई नहीं देता। जो लोभ पाप का मूल है, पुत्र द्वारा पिता का वध करा देता है, पाप का बन्ध करता है और प्राणी को कष्ट ज्वाला में झौंकता है, वह धिक्कृत है। लोभी पुरुष की वैसी ही गति होती है जैसी 'सूआ बत्तीसी' काव्य में 'लोभ नलिनि' पर बैठने से तोते की हुई। मोह चेतन के अनात्म-भावों का राजा है । वह जीव पर कामना रूपी वाणों से चोट करता है, जीव धर्म-ध्यान की ओट में ही स्वयं को बचाकर मोह पर उलटा प्रहार कर सकता है। यह मोह-दशा अत्यन्त भारस्वरूप है। कांपने से इसका निवारण नहीं होता। अज्ञानी जीव मोह के कारण १. यशोधर चरित, पद्य ३०७ । २. श्रोणिक चरित्र, पद्य ७१५, पृष्ठ ४६ : ३. शील कथा, पृष्ठ ४३ । । ४. पार्श्वपुराण, पद्य १६३, पृष्ठ १६६ । ५. सीता चरित, पद्य ६३१, पृष्ठ १४२ । ६. श्रेणिक चरित, पद्य १०१६, १०२०, १०२१, पृष्ठ ७६ । ७. सूआ बत्तीसी, पद्य ११ से १८, पृष्ठ २६८ से २६६ । ४. चेतन कर्म चरित्र, पद्य १६८, पृष्ठ ७२ ।
SR No.010270
Book TitleJain Kaviyo ke Brajbhasha Prabandh Kavyo ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherBharti Pustak Mandir
Publication Year1976
Total Pages390
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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