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________________ २३४ जैन कवियों के ब्रजभाषा-प्रबन्धकाव्यों का अध्ययन श्रृंगार रस विवेच्य युग शृंगार-युग था। उसका प्रभाव जैन प्रबन्धकारों पर भी पड़ा, किन्तु प्रतिक्रियात्मक रूप में। उनका लक्ष्य शृंगार का निरूपण नहीं था। उन्होंने नारी के रूप-सौन्दर्य और प्रेम-विलास आदि के चित्रों को प्रायः शान्त रस की परिणति के लिए रूपायित किया है। उनके काव्य में संयोग शृंगार की अपेक्षा वियोग शृंगार की मार्मिक विवृति को अधिक प्रश्रय मिला है। संयोग पक्ष 'श्रेणिक चरित,'' 'सीता चरित,'६ 'नमीश्वर रास आदि काव्यों में संयोग शृंगार के थोड़े-से स्थलों का समावेश है। ये स्थल अभिलाष से विलोड़ित और काम-सौन्दर्य से आर्द्र हैं । _ 'नेमिनाथ चरित' में राजुल द्वारा प्रिय-मिलन की उत्कंठा से किया गया श्रृंगार भी संयोग शृंगार के अन्तर्गत आयेगा : राजुल अपने महल में कर सोड़स सिंगार । रूप अधिक स्यौ अधिक छबि, नैना काजल सार॥ नेत्र कमल दल मुष ससि दीय । नासा कीर दसन कुंद जीय ।। कनक कलस कुच कटि मृग बाज। कदली थम जंघ सिरताज ।। नवसिष सोभा नृप बहु प्रीति । प्रानहु ते अति प्यारी रीति ।। -श्रीणिक चरित, पृष्ठ ३ । अनंग अंग आलिंग को, रंग बहुत उर मांहि । संग त्यागि उद्यम कियो, रहै बन अब नांहि ।। ततषिण लंका में गयो, सुन्दरि धरि मन मांहि । संदेसो ले वेगि दे, मैं आऊँ तुम पांहि ॥ -सीता चरित, पद्य १२६४-६५, पृष्ठ ७० । ३. नेमीश्वर रास, पद्य २६८, पृष्ठ १८ ।
SR No.010270
Book TitleJain Kaviyo ke Brajbhasha Prabandh Kavyo ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherBharti Pustak Mandir
Publication Year1976
Total Pages390
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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