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________________ रस-योजना २३५ काना कुंडल जगमग, गल मोतिन को हार । सीस फूल सुन्दर वण्यो, नेवर पग झनकार ॥ कर कंकण रतना जड्या, मोती विविध प्रकार ।' यहाँ राजुल आश्रय है और नेमिनाथ आलम्बन । विवाह का रागरंग उद्दीपन विभाव है । प्रफुल्लता और अभिलाषा, हर्ष-औत्सुक्य आदि संचारी भाव हैं। इस प्रकार रति स्थायी भाव परिपुष्ट होकर संयोग श्रृंगार रस का चित्र प्रस्तुत कर रहा है । कहीं-कहीं संभोग. शृंगार का स्थायी भाव रति जुगुप्सा के कारण भाव-शान्ति में परिणत हो गया है, यथा-यशोधर चरित में। कहने का अभिप्राय यह है कि ऐसे दृश्यों के निरूपण में जैन कवियों का लक्ष्य संभोग शृगार को साकार करना नहीं, वरन् उनके माध्यम से अन्ततः विरक्ति के भाव को उद्दीप्त करना रहा है । वियोग पक्ष हमारे प्रबन्धकारों को शृंगार का संयोग पक्ष नाममात्र को ही आकर्षित कर सका प्रतीत होता है। हाँ, उन्हें तो वियोग ही अधिक भाया है। उनकी दृष्टि वियोग में खूब रमी है । उन्हें नारी की शील-परीक्षा और उसके शील-निरूपण के लिए वियोग को महत्त्व देना ही अभीष्ट रहा है । कहना न होगा कि उनकी भावुकता के लिए, उनके हृदय की कोमल वृत्तियों के प्रसार के लिए, उनके व्यक्तित्व के विस्तार के लिए आश्रय-स्थल विप्रलंभ शृगार ही बना है। विभिन्न कवियों ने विभिन्न प्रकार से नारी की विविध मनोदशाओं को बड़ी मार्मिकता से अभिव्यंजित किया है । 'सीता चरित' में सीता का वियोग अनेक स्थलों पर सामने आया है। सेनापति जब दुर्दमनीय वन में गर्भवती सीता को छोड़कर चल देता है, तो १. नेमिनाथ चरित, पद्य ६० से १२ । २. यशोधर चरित, पद्य २६५ ।
SR No.010270
Book TitleJain Kaviyo ke Brajbhasha Prabandh Kavyo ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherBharti Pustak Mandir
Publication Year1976
Total Pages390
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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