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________________ १८४ जैन कवियों के ब्रजभाषा प्रबन्धकाव्यों का अध्ययन हो रहा है, परन्तु युद्ध आदि के स्थलों पर अपना पृथक् अस्तित्व रख रहा है ।' वे अतीव बल-वैभव सम्पन्न योद्धा हैं । उनके रौद्ररूप के सम्मुख किसी में टिक सकने की सामर्थ्य नहीं है । राम-रावण युद्ध के अवसर पर उनका शौर्य एवं पराक्रम देखते ही बनता है । युद्ध में प्रचण्ड बेग से लड़ने के कारण ही वे रावण के शक्तिबाण से घायल और धराशायी हो जाते है ; परन्तु जैसे ही उन्हें होश में लाया जाता है कि वे महाशक्ति का रूप लेकर रावण पर प्रहार पर प्रहार करते चले जाते हैं, रावण के बाणों को रोकते जाते हैं और अन्त में उसे काल का शिकार बना देते हैं । " वस्तुतः लक्ष्मण के चरित्रोत्कर्ष के दो प्रधान कारण लक्षित होते हैं । भ्रातृ-भक्ति के उज्ज्वल आदर्श से ओत-प्रोत होना इसका पहला कारण है और बल-तेज- शौर्य को साथ लेकर किसी परिस्थिति अथवा युद्धादि के अवसर पर विकराल रूप धारण कर प्रलयंकारी दृश्य उपस्थित कर देना दूसरा कारण है । भरत 'सीता चरित' में भरत के चरित्र की थोड़ी सी रेखाएँ उभरी हैं । वे शील - शिरोमणि हैं । कैकेयी को वे जितने प्रिय हैं, राम को वे उससे भी अधिक प्रिय हैं । उचित-अनुचित का निर्णय, साधु-स्वभाव और त्याग वृत्ति उनके चरित्र की प्रमुख विशेषताएँ हैं । वे राम से निवेदन करते हैं कि है सीता चरित, पद्य १४८५-८६, पृष्ठ ८२ । २. लछमन धनुष संभारि सबद करि जोरि कैं । धनुष गिरा सुनि देव गयौ मुष मोरि ॥ देव विचार्थी औधिकरि, देषे हरि बल जान । भागि गयौ इक पलक मैं, ज्यों भागे तपभान ॥ १. - वही, पद्य ८२१-२२, पृष्ठ ४६ ॥ ३. ४. वही, पद्य १४९०, पृष्ठ ८१ । वही, पद्य १९९४ से १९६१, पृष्ठ १०८ से १११ । 4. वही, पद्य १४८५ से १४८६, पृष्ठ ८२ ।
SR No.010270
Book TitleJain Kaviyo ke Brajbhasha Prabandh Kavyo ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherBharti Pustak Mandir
Publication Year1976
Total Pages390
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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