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________________ कविवर वनारसीदास हृदय में आनन्द पाते हैं इस तरह ये पांचों दर्शन एक एक अङ्ग का ही पोपण करते हैं किन्तु सर्व अङ्गों का ग्रहण करने वाला जैन दर्शन सर्व रूप मानता है। कुकवि निंदा मिथ्या कल्पना करने वाले कवि की ओर लक्ष्य करते हुए कवि क्या कहते हैं इसे जरा ध्यान देकर सुनिए ? मांस की गरंथि कुच कंचन कलश कहैं, कहै मुख चंद जो श्लेपमा को घर है। हाड़ को दश न पांहि हीरा मोती कहैं ताहि, मास के अधर ओठ कहै विंवा फल हैं। हाड़ दंड भुजा कहैं कोल नाल काम जुधा, हाड़ ही के थंभा जंघा कह रंभा तरु है। योंहि झूठी जुगति बना और कहा कवि, येते पर कहैं हमें शारदा को वर है। अनेक कविगण मांस की गांठ को कंचन कलशों की उपमा देते हैं। जो कफ और थूक का भंडार है उस मुख को चन्द्र कहते हैं। हाड़ के टुकड़े दांतों को हीरा और मोती बतलाते हैं और मांस के अधरों को अनार फल कह देते हैं। हाड़ के दंड की भुजा को कमल नाल और काम की ध्वजा कहते हैं, जो हाड़ के थंभ है ऐसी जंघाओं को केले का थंभ कहते हैं इस तरह झूठी-झूठी कल्पनाएं करते हैं और कवि कहलाते हैं इतने पर कहते हैं कि हमें शारदा का वर प्राप्त हुआ है।
SR No.010269
Book TitleJain Kaviyo ka Itihas ya Prachin Hindi Jain Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchandra Jain
PublisherJain Sahitya Sammelan Damoha
Publication Year
Total Pages207
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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