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प्राचीन हिन्दी जैन कवि
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ही दूसरों के हाथ बिकी है। वह अंधे मनुष्य की तरह चलती है और कामांध पुरुप जैसी उसकी शक्ति है । कर्म बंध को बढ़ाती है और संसार के झूठे धंधों की ओर दौड़ने वाली है।
वह वेश्या सी स्वच्छन्द फिरती है और भांड की पुत्री की तरह लज्जा हीन है।
इस तरह आत्मा का भेद न जानने वाली, दूसरों (कर्म) के आधीन रहकर खेद करने वाली कुमति दासी कुवजा कहलाती है। कुबुद्धि का परिणाम
कुबुद्धि के वश में हुआ मनुष्य किस तरह की क्रियायें करता है इसका मनोहर चित्र देखिए । काया से विचारे प्रीति, माया ही में हारि जीति,
लिए हठ रीति जैसे हारिल की लकरी । चुंगुल के जोर जैसे गोह गहि रहे भूमि,
त्योंहीं पाँय गाड़े पै न छाड़े टेक पकरी ॥ मोह की मरोर सों भरम को न ठोर पावे,
धावे चहुँ ओर ज्यों बढ़ावे जाल मकरी । ऐसे दुरवुद्धि भूली माया झरोखे झूली, फूली. फिरै ममता जंजीरन सों जकरी ।।
काया से ही प्रीति करता है और माया के जाने आने में ही हार जीत समझता है । मिथ्या हठ को ही पकड़े रहता है .