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कविवर बनारसीदास
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अशुभ में हार और शुभ कर्म के उदय होने पर जीत मानना यही जुत्रा है। शरीर में मग्न रहना यही मांस भक्षण है। मोह के नशे में मस्त होकर अज्ञान रहना ही शराब का पीना है और कुमति के रण में मन्न रहना ही वेश्या सेवन है।
निर्दय होकर आत्मघात करना ही शिकार है। पर बुद्धि को ग्रहण करना पर नारी सेचन है और पर वस्तु काम, क्रोध
आदि के ग्रहण करने की इच्छा करना ही चोरी है। इन्हीं सप्त व्यसनों का त्याग करने से ही आत्मा की पहचान होती है। कुमति कुबजा का स्वरूप
कुबुद्धि की करतूतों का वर्णन करते हुए कविवर उसे किस प्रकार कुबजा सिद्ध करते हैं इसे सुनिए। कुटिला कुरूप अङ्ग लगी है पराए संग,
अपनो प्रमाण करि आपही चिकाई है। गहै गति अंध की सी, सकति कमंध की सी, .
चंधको चढ़ाव करै धंध ही में धाई है। रांड की सी रीत लिए मांड की सी मतवारी,
सांड ज्यों स्वछंद डोले भांड की सी जाई है। घर का न जाने भेद करे पराधीन खेद, . . यातें दुरवुद्धी दासी कुबजा कहाई है ॥
कुरूपिणी, कुमति, कुटिला पराये (शरीर के) संग ही लगी हुई है और अपने द्वारा खोटी बुद्धि को रखने वाली खुद
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