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आत्म जागृति
कविवर बनारसीदास
आत्मा को सम्बोधित करते हुए कविवर कहते हैंचेतन जी तुम जागि विलोकहु,
लागि रहे कहां माया के तांई ॥ आये कहीसों कहीं तुम कहीं तुम जाहुगे,
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माया रहेगी जहाँ के तहांई ॥ माया तुम्हारी न जाति न पाँति न, वंश की वेलि न अंश की झांई ॥ दासी किये विन लातनि मारत, ऐसी अनीति न कीजे गुसांई ॥५॥
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हे चेतन जी तुम जागो और देखो । अरे ! इस माया के पीछे क्यों लग रहे हो ।
तुम न मालूम कहाँ से आए हो और कहाँ जाओगे परन्तु यह माया न तुम्हारे साथ आई है और न जायगी । यह तो जहाँ की तहाँ ही रहेगी ।
भाई ! यह माया न तो तुम्हारी जाति पांति की हैनतुम्हारे वंश की वेल है और न तुम्हारे अंश की इसमें कुछ झलक ही है ।
इसे दासी बनाकर न रखने से यह तुम्हें लातों से पीटती है । हे चेतन स्वामी ऐसी अनीति क्यों सहन करते हैं । इस माया की गुलामी को छोड़ दो।