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प्राचीन हिन्दी जैन कवि
जगह जगह रक्त के कुंड हैं। उसपर बालों के झुंड खड़े हुये हैं। हाड़ों से भरा हुआ यह देह चुडै न के स्थान की तरह भयानक है। थोड़ासा धक्का लगते ही इस तरह फट जाती है । मानों कागज की पूड़ी अथवा जीर्ण कपड़े की चादर ही हो। यह देह भ्रम की बातें ही सुझाती है, मूखों से प्रेम कराकर सुख को नष्ट कराती है और कुकर्मों को भंडार है इसके स्नेह और संगति से हमारी हालत कोल्हू के वैल की तरह हो रही है। कोल्हू के वैल की दशा
कोल्हू के वैल बने हुए संसारी मनुष्यों की दुर्दशा का चित्र देखिए। पाटी बाँधी लोचनि सो सकुँचे दबोचनि सों,
कोचनी के सोचसों निवेदे खेद तनको। . धाइबोही धंधा अरु कंधा माहि लग्यो जोत, ..
___ बार बार आरत है कायर ह मन को ॥ • भूख सहे प्यास सहे दुर्जन को त्रास सहै,
थिरता न गहे न उसास लहे छिनको । पराधीन घूमे जैसे कोल्हू को कमेरो बैल, . तैसो ही स्वभाव भैया जग वासी जनको ।।
आँखों में पट्टी बंधी हुई है। दवाव के कारण सभी अंग संकुचित हो रहे हैं, कोंचनी के सोच से जिसका मन सदैव ही खेदित रहता है।