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कविवर बनारसीदास
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संसारी प्राणी मनुष्य का रूप धारणकर संसार में डोलते हैं। वे चरण में बुझ जाने वाले प्रेत के दिए और रेत के टीले हैं।
वस्त्राभूषण के आडंबर से वे सुन्दर दिखते हैं परन्तु एक क्षा में ही फीके पड़ जाने वाले संध्या के बादलों ही की तरह क्षणभंगुर हैं।
मोह की आग से दगे हुए माया के अहँकार में फंसे हुए डाभ की अनी के ऊपर पड़े हुए श्रोस जैसे बिन्दु हैं ।
जिनको धर्म की कुछ परवाह नहीं है और जो भ्रम में ही उलझे हुए हैं वे मरी जैसे चूहों की तरह संसार में नाच नाचकर मृत्यु को प्राप्त हो जायेंगे ।
शरीर का स्वरूप
ऊपर से सुन्दर दिखने वाले शरीर के सच्चे स्वरूप का दिग्दर्शन कीजिए 1
ठौर ठौर रकति के कुण्ड केसनि के झुण्ड, हाड़नि सों भरी जैसे थरी है चुरेल की । थोरे से धक्का लगे ऐसे फट जाय मानों, कागद की पूरी कीधो चादर है चैल की ॥ सूचे भ्रम वानि ठानि मूढनिसों पहिचानि,
करे सुख हानि अरु खानि वदफैल की । ऐसी देह याही के सनेह याकी संगति सों,
हो रही हमारी दशा कोल्हू कैसे बैल की ॥ -