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प्राचीन हिन्दी जैन कवि
हे भाई! जिसको तू कहता है कि यह मेरी संपत्ति है । उसे साधुओं ने इस तरह फेंक दी है जैसे नाक को छिनक देते हैं। जिसे तू कहता है कि मैंने बड़े पुण्य के योग से पाई है वह तो नर्क को ले जाने वाली केवल अढ़ाई दिन की ही है ।
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इसके घेरे में पड़ा हुआ इसे देख देखकर तू अपनी आँखें ठंडी करके अपने को सुखी मानता है और उसके लिए इस तरह दौड़ता है जैसे कि मिठाट के छिटकते ही मक्खियाँ भिनकती हैं। यह तेरी बड़ी मूर्खता है ।
हे भाई! इस संसार में दुःख ही दुःख है एक क्षण के लिये भी कहीं शान्ति का ठिकाना नहीं है इतने पर भी संसार के रहने वाले प्राणी इससे उदास नहीं होते यह बड़े आश्चर्य की बात हैं ।
संसारी प्राणी कैसे हैं
संसारी जीव कैसे हैं उनकी स्थिति कैसी है इसका कविवर ने वड़ा ही सुन्दर चित्र खींचा है।
जगत में डोलें जगवासी नर रूप घर,
प्रेत कैसे दीप कींधो रेत कैसे धूहे हैं । दीसे पट भूषण आर्डवर सो नीके फिर,
फीके छिन मांहि सांझ अंवर ज्यों है ॥" मोह के अनल दगे माया की मनीसों पगे,
डाम कि अनीसों लगे ऊस कैसे फूहे हैं । धरम की बूझि नांहि उरझे भरम मांहि,
नाचि नाचि मरि जांहि मरी कैसे चूहे है ||