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कविवर बनारसीदास
जहाँ ज्ञान क्रिया मिले, तहाँ मोक्ष मग सोय । वह जाने पद को मरस, वह पद में थिर होय ||
जिस तरह लगड़ा, नेत्र हीन मनुष्य के कंधे पर चढ़कर अपने नेत्र और अंधे के पैरों की सहायता से दोनों निःशंक रूप से मार्ग के पथिक बन जाते हैं। उसी तरह जहाँ ज्ञान और आचरण दोनों मिल जाते हैं वहाँ मोक्ष के मार्ग पर चलना होता है ।
ज्ञान आत्म रहस्य को जानता है और क्रिया उसमें स्थिर जाती है तब मुक्ति प्राप्त हो जाती है ।
संसार की संपत्ति कैसी है ?
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संसार का वैभव कैसा है और संसारी जीव उस पर किस तरह मुग्ध हो रहे हैं इसके वर्णन में कविवर ने बड़ी मनोहर उक्तियों का प्रयोग किया है ।
जासू तू कहत यह संपदा हमारी सो तो, साधुनि ये. डारी ऐसे जैसे नाक सिनकी । जा तू कहत हम पुन्य जोग पाई सो तो, नरक की साई है चढ़ाई डेढ़ दिन की ॥ चेरा मांहि परयो तू विचारे सुख आंखिन को, माँखिन के चूटत मिठाई जैसे भिनकी । ऐते पर होइ न उदासी जगवासी जीव,
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जग में असाता है न साता एक छिनकी ॥
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