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प्राचीन हिन्दी जैन कवि
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जैसे निशि वासर कमल रहे पंक ही में,
पंकज कहावै पै न वाके ढिग पंक है। जैसे मंत्रवादी विपधर सौ गहावे गात,
मंत्र की शकति वाके विना विप डंक है ।। जैसे जीम गहे चिकनाई रहे रूखे अंग,
पानी में कनक जैसे काई से अटक है। तैसे ज्ञानवान नाना भांति करतूत ठाने,
किरिया रौं भिन्न माने यातै निष्कलंक है ।।
कमल रात दिन पंक (कोचड़) में ही रहता और पंकज कहलाता है परन्तु वह कीचड़ से सदा ही अलग रहता है। .
मंत्रवादी सर्प को अपना शरीर पकड़ाता है परन्तु मंत्र की शक्ति से विप के रहते हुए भी सर्प का डंक निर्विप रहता है।
जीभ चिकनाई को ग्रहण करती है परन्तु. वह सदा ही रूखी रहती है पानी में पड़ा हुआ सोना काई से अलग रहता है। .
इसी तरह ज्ञानी मनुष्य संसार में अनेक क्रियाओं को करते हुए भी अपने को सभी क्रियाओं से भिन्न मानता है। उन क्रियाओं में मग्न नहीं होता इसलिए सदैव ही निष्कलंक रहता है। ज्ञानवान का हृदय
आत्म ज्ञानी मनुष्य की दशा कैसी होती है उसकी भावना क्या रहती है इसका वर्णन सुनिये। " जिनकी सुबुद्धि चिमटा सी गुण चूनवे को, __कुकथा के सुन्वे को दोऊ कान मढ़े हैं।