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प्राचीन हिन्दी जैन कवि
रूप की न झांक हिए करम को डांक पिये,
ज्ञान दबि रह्यो मिरगांक जैसे धन में । लोचन की ढांक सोन मानें सद्गुरु हांक,
डोले मूद रंक सो निशंक तिहूँपन में ॥ टंक एक मांस की डली सी तामें तीन फांक,
तीनको सो आंक लिखिरख्यो कहूँ तनमें । तासों कहे नांक ताके राखने को करे कांक,
लांक सो खड़ग गांधि वाँक धरे मन में ॥ 'हृदय में आत्म रूप की झलक नहीं है, कर्म का तीक्ष्ण . जहर पिये हुए है, ज्ञान का प्रकाश इस तरह दबा हुआ है जैसे वादलों में सूर्य दब जाता है। विवेक के नेत्र वन्द हो रहे हैं जिससे सद्गुरु की पुकार को नहीं सुनता । अपनी आत्म शक्ति । खोकर यह अज्ञानी प्राणी तीनों काल में भिखारी की तरह निडर. होकर डोलता है।
मांस के एक टुकड़े में तीन फांके बनी हुई हैं मानो किसी ने शरीर में तीन का अंक लिख रक्खा है उसको नाक कहता है । और उसके रखने के लिए अनेक तरह के छल कपट करता है। और कमर से तलवार बांधकर मन में घमंड रखता है। अज्ञानी की अवस्थाएं
इसमें कविवर अज्ञानी की दशा और ज्ञान की महिमा का वर्णन सुन्दर उपमाओं द्वारा कहते हैं आप इसे सुनिए और आपको जो पसंद हो उसे ग्रहण कीजिए !