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प्राचीन हिन्दी जैन कवि
कुटिल, अपनी आत्मा का घात करनेवाला मिथ्यान्टी महा पातकी है।
इसमें पातकी शब्द का सुन्दर प्रास मिलाया गया है। कवि की असमर्थता
कविवर अपनी असमर्थता किन शब्दों द्वारा प्रकट करते हैं इसका भी थोड़ा नमूना देख लीजिए। जैसे कोऊ मूरख महा-समुद्र तरिवे को,
सुजानि सो उद्यत भयो है तजि नावरी । जैसे.गिरि ऊपर विरख फल तोरिवे को,
वामन पुरुप कोऊ उमगे उतावरो ।। जैसे जल कुंड में निरखि शशि प्रतिक्वि,
ताके गहिवे को कर नीचो करै टावरो । तैसे मैं अलप बुद्धि नाटक आरंभ कीनो,
गुनी मोही हँसेंगे कहेंगे कोऊ बावरी ॥ जिस तरह कोई मनुष्यं नाव को छोड़कर हाथों से महा सागर को पार करने का प्रयत्न करता है, कोई बौना पुरुष पहाड़ पर के वृक्ष के फल तोड़ने के लिए बड़े उत्साह से दौड़ता है:
और कोई वालक जल के कुण्ड में पड़े हुए चन्द्रमा के प्रतिविम्व को पकड़ने के लिए नीचे को हाथ बढ़ाता है उसी तरह मैं भी. थोड़ीसी वुद्धि रखने पर.नाटक की रचना करना आरम्भ. करता हूँ इसे देखकर गुणवान पुरुष मेरो अवश्य ही. हँसी करेंगे और. कहेंगे कि यह कोई पागल है।