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कविवर बनारसीदास
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मिठबोला सवही सों प्रीति, जैन धर्म की दिढ़ परतीति । सहनशील, नहिं कहै कुत्रोल, सुथिर चित्त नहिं डांवाडोल ॥ कहै सवनि सौं हित उपदेश, हिरदै सुष्ट दुष्ट नहिं लेश । पररमणी को त्यागी सोय, कुव्यसन और न ठान कोय ।। हृदय शुद्ध समकित की टेक, इत्यादिक गुन और अनेक । अल्प जपाय कहे गुन जोय, नहिं उत्कृष्ट न निर्मल होय ॥
दोष कथन क्रोध मान माया जल रेख, पै लक्ष्मी को मोह विशेख । पोते हास्य कर्मदा उदा, घर सों हुआ न चाहै जुदा ॥ करै न जप तप संजम रीत, नहीं दान पूजा सों प्रीत । थोरे लाभ हर्ष बहु धरै, अल्प हानि बहु चिन्ता करै । मुख अवध भाषत न लजाय, सीखै भंडकला मनलाय । भापै अकथ कथा चिरतंत, ठानै नृत्य पाय एकन्त ॥ अनदेखी अनसुनी बनाय, कुकथा कहै सभा में आय । होय निमग्न हास्य रस पाय, मृपावाद विन रह्यो न जाय ॥ अकस्मात भय व्यापै घनी, ऐसी दशा आय कर बनी।
उपसंहार कबहुं दोष कबहुगुन जोय, जाको हृदय सुपरगट होय । यह बनारसी जी की बात, कही थूल जो हुती विख्यात ।।