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प्राचीन हिन्दी जैन कवि
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हम बैठे अपने मौन सों। दिन दश के महिमान जगतजन, बोलि विगार कौन सों॥ गए विलाय भरम के बादर, परमास्थ पद पौन सों । अब अतंर गति भई हमारी, परचे राधारोन सौं ।।. प्रगटी सुधा पान की महिमा, मन नहिं लागे वौन सों। छिन न सुहाय और रस फोके, रुचि साहिब के लौन सों॥ रहे अपाय पाय सुख संपति, को निकसै निज भौन सों। सहज भाव सद्गुरु की संगति, सुरझे आवागौन सों ।। गुण दोष
__ जीवन-चरित्र के अन्त में नायक के गुण दोषों की आलोचना करने की प्रथा है। नायक गुण के दोषों का वर्णन करने में बड़ी कठिनता होती है किन्तु कविवर ने इस कठिनता को स्वयं हल कर दिया है। उन्होंने अर्ध-कथानक को पूर्ण करते समय अपने गुण दोषों का स्वयं वर्णन किया है।
अब बनारसी के कहों, वर्तमान गुण दोप । विद्यमान पुर आगरे, सुखसों रहै सजोष ॥
- गुण कथन भाषा कवित अध्यातम माहि, पंडित और दूसरो नाहि । क्षमावंत संतोषी भला, भली कवित पढ़वे की कला ।। पदै. प्राकृत संस्कृत · शुद्ध, विविधि-देशभाषा-प्रतिवुद्ध । जानै शब्द. अर्थ को भेद, ठाने नहीं जगत को खेद ॥