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________________ कविवर वनारसीदास ४१ घटना से सिपाही चकित हो गया। उसका हृदय 'धन्य, धन्य' कहने लगा। उस दिन से वह नित्य प्रातःकाल उनके द्वार पर जाकर नमस्कार करता, तब कहीं अपनी नौकरी पर जाता। जीवन समाप्ति अर्ध कथानक लिखने के पश्चात् कविवर कितने समय जीवित रहे इसका कुछ निश्चय नहीं हो सका है। कविवर का दोहोत्सर्ग अविदित है परन्तु मृत्यु काल की यह किंवन्दती अत्यंत प्रसिद्ध है । जिस समय कविवर मृत्यु शैय्या पर पड़े थे उस समय उनका कंठ अवरुद्ध हो गया था, रोग की तीव्रता के कारण वे बोल नहीं सकते थे और इसलिए अपने अन्त समय का निश्चयकर ध्यान में मग्न हो रहे थे। उनकी मौन मग्नता को देखकर मूर्ख लोग कहने लगे कि इनके प्राण माया और कुटुम्बियों में अटक रहे हैं। उसको कविवर सहन नहीं कर सके और इशारे से पट्टी और लेखनी मँगाकर दो छन्द गढ़कर लिख दिए। ज्ञान कुतका हाथ, मारि अरि मोहना । प्रगट्यो रूप स्वरूप, अनंत सुमोहना ॥ जापरजै को अन्त, सत्यकर मानना । बनारसीदास., फेर नहिं . .आवना ॥
SR No.010269
Book TitleJain Kaviyo ka Itihas ya Prachin Hindi Jain Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchandra Jain
PublisherJain Sahitya Sammelan Damoha
Publication Year
Total Pages207
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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