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________________ कविवर वनारसीदास शीतलदास । एक-दो बातें करने के पीछे आप फिर पूछ बैठे महाशय ! क्षमा कीजिये, मैं फिर भूल गया। आपका नाम । इस तरह जवतक आप वहाँ बैठे रहे फिर फिर नाम पूछते रहे। फिर वहाँ से उठकर घर को चलने लगे तब लौटकर फिर पूछने लगे। महाराज! क्या करू, आपका नाम फिर भूल गया वतला दीजिये। अव तक तो बाबा जी शान्ति के साथ उत्तर देते रहे । अब की बार गुस्से से फूट पड़े, मुझलाकर वोले- अबे वेवकूफ ! दश बार तो कह दिया कि शीतलदास ! शीतलदास! शीतलदास ! फिर क्यों खोपड़ी खाए जाता है। बस क्या था, परीक्षा हो चुकी, महाराज फेल हो गये कविवर यह कहते हुए चल दिये कि महाराज! आपका यथार्थ नाम ज्वालाप्रसाद होने योग्य है। इसी प्रकार एक समय दो नग्न मुनि आगरे में आये । वे मन्दिर के दालान में एक झरोखे में बैठे थे, भक्तजनों की भीड़ लगी थी। कविवर भरोखे के पास बगीचे में उनके साम्हने खड़े होकर उनकी परीक्षा करने लगे। जब किसी मुनि की दृष्टि उनपर आती तब वे अँगुली दिखाकर उन्हें चिढ़ाते । मुनियों ने यह लीला देखकर उस ओर से मुह फेर लिया परन्तु कविवर ने अंगुली मटकाना बन्द न किया । मुनिराज की क्षमा कूचकर गई. वे अपने भक्तजनों से वोले, देखो! बाग में कोई कूकर ऊधम मचा रहा है। यह सुनते ही कविवर रफू-चक्कर हो गये। लोगों ने बाग में जाकर देखा तो वहाँ कोई नहीं था केवल वनारसीदास आ रहे थे. उन्होंने वापिस लौटकर कहा, महाराज! वहाँ तो फूकर शूकर कोई न था हमारे यहाँ के प्रतिष्ठित पंडित. बनारसीदास जी. थे। यह सुनकर मुनियों को बहुत चिन्ता हुई कि कोई विद्वान् परीक्षक था। चस वह दो चार दिन रहकर ही वहाँ से चले गये।
SR No.010269
Book TitleJain Kaviyo ka Itihas ya Prachin Hindi Jain Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchandra Jain
PublisherJain Sahitya Sammelan Damoha
Publication Year
Total Pages207
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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