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प्राचीन हिन्दी जैन कवि
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कविवर की दृढ़ता
कविवर वनारसीदासजी अपने विचारों में पूर्ण दृढ़ थे उनमें स्वाभिमान और आत्मगौरव की मात्रा पूर्ण रूप में थी विचारपूर्वक जिस सिद्धान्त को वे गृहण कर लेते थे किसी भय अथवा प्रलोभन द्वारा उससे विचलित होना अत्यन्त कठिन था अपनी प्रतिज्ञा पालन में वे साहसी और हद थे। कहते हैं
एक समय बादशाह जहाँगीर के दरवार में एक जवान मुसलमान ने आकर कहा- हुजूर ! वादशाह सलामत ! गजव की वातहै कि आपकी सल्तनत में ही ऐसे विद्रोही मौजूद हैं जो आपको सलाम नहीं करते। वादशाह ने पूछा-ऐसा कौन आदमी है जो जहाँगीर की हुकूमत को नहीं. मानता। उस मनुष्य ने वनारसीदासजी का नाम लिया वनारसीदासजी सम्मान पूर्वक दरवार में बुलाये गये वह निर्भीकता पूर्वक अपने स्थान पर बैठ गये। आज संपूर्ण सभासदों की दृष्टि उन्हीं की ओर लगी हुई थी। बादशाह ने उनसे सलाम करने के लिये कहा तब उन्होंने वड़े साहस के साथ उसी समय निम्न लिखित पद्य बनाकर सुनायाः
जगत के मानी जीव है रह्यो गुमानी ऐसो । आश्रव असुर दुख दानी महाभीम है ।। ताको परिताप खंडिवे को परगट भयो। धर्म को धरैया कर्म रोग को हकीम है ।