________________
प्राचीन हिन्दी जैन कवि
निरखि सकति गुन चक्र-सुदर्शन उदय विभीपण दीन । फिर कबंध मही रावण की प्राण भाव शिर हीन ॥ इह विधि सकल साधु घट अंतर होय सहज संग्राम । यह विवहार दृष्टि रामायण केवल निश्चय राम || ___ बनारसीदास जी की इस आध्यात्मिक रचना से तुलसीदास जी प्रसन्न होकर बोले अापकी रचना मुझे बहुत प्रिय लगी है। मैं उसके बदले में क्या सुनाऊँ ? उस दिन आपकी पार्श्वनाथ स्तुति पढ़कर मैंने भी एक पार्श्वनाथ स्तोत्र बनाया था उसे आपका भेंट करता हूँ। यह कहते हुए उन्होंने "भक्ति विरदावली” नामक एक सुन्दर कविता कविवर जी को प्रदान की। कविवर जी को उससे बहुत सन्तोप हुआ और बहुत दिनों तक समय समय पर दोनों की भेंट होती रही।
सत्य की परीक्षा
जैन धर्म के पूर्ण शृद्धानी होने पर भी आपके हृदय में अंधशृद्धा को किचित् भी स्थान नहीं था आप विना ठीक तरह से परीक्षा किये किसी पर भी विश्वास नहीं करते थे। ____एक समय आगरे में बावा शीतलदासजी आये थे उनकी शांतिता और क्षमा की अनेक चर्चाएं नगर में फैल गईं। कविवर उनकी परीक्षा के लिये पहुँच गये और एक स्थान पर बैठकर उनका उपदेश सुनने लगे। जब उपदेश समाप्त हुआ तब आप बोले-महाशय ! आपका नाम क्या है ? बाबाजी बोले-मुझे शीतलदास कहा करते हैं। बातें करने के कुछ देर बाद फिर पूछा-कृपानिधान ! मैं भूल गया, आपका नाम । उत्तर मिला