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कविवर वनारसीदास
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प्रेम और आग्रह से रक्खा उसके व्यवहार को देखकर कविवर ने कहा है।
वह दुख दियो नवाब कुलीच ।
यह सुख शाहजादपुर वीच ।।
एक समय व्यापार में इतनी हानि हुई कि कविवर के पास कुछ भी द्रव्य नहीं रहा। तब आप एक कचौड़ी वाले के यहाँ उधार कचौड़ी खाने लगे। कचौड़ी वाले के यहाँ कई दिन तक उधार खाते हुए एक दिन आपने बड़े संकोचपूर्वक कहा
तुम उधार कीन्हों बहुत, आगे अब जिन देहु । मेरे पास कछू नहीं, दाम कहाँ सौं लेहु ।।
कचौड़ी वाला भला आदमी था वह विश्वास के महत्व को समझता था । कविवर के व्यवहार से उसे ज्ञात हो गया था कि यह अविश्वस्त पुरुप नहीं है। उसने कहा-आप कुछ चिन्ता न कीजिए आपकी जब तक इच्छा हो आप बिना संकोच के उधार लेते जाइए। मेरे द्रव्य की कुछ भी चिन्ता न कीजिए और आपकी इच्छा जहाँ रहने को हो वहाँ रहिए मेरा द्रव्य वसूल हो जायगा
आपने उसके यहाँ सात माह तक उधार भोजन किया परन्तु उसने कभी किसी प्रकार का अविश्वास प्रकट नहीं किया।
एक दिन मृगावती की कथा सुनने तावी ताराचंदजी नाम के एक सज्जन आए। यह दूर के रिश्ते में बनारसीदास जी के श्वसुर होते थे उन्होंने बनारसीदास जी को पहिचान लिया और स्नेह के साथ एकान्त में ले जाकर प्रार्थना की, कि कल आप मेरे घर को अवश्य ही पवित्र कीजिए। वे सबेरेही उन्हें साथ ले जाने के