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________________ ३० प्राचीन हिन्दी जैन कवि स्नेह और विश्वासपात्रता ___ उस समय जनता में परस्पर अत्यन्त स्नेहभाव रहता था विश्वासपात्रता तो प्रत्येक गृह में निवास करती थी। अपरिचित व्यक्ति की भी सहायता करना उस समय के नागरिक अपना कर्तव्य समझते थे। एक बार जौनपुर के हाकिम कुलीचखां ने नगर के सभी जौहरियों को अत्यन्त कष्ट दिया उसके क्रूर व्यवहार से दुखित होकर सभी जौहरियों ने जौनपुर का परित्याग कर दिया। कविवर के पिता खरगसैन जी ने भी जौनपुर त्याग कर पश्चिम की ओर प्रयाण किया वे शाहजादपुर के निकट ही पहुँचे थे कि मूसलाधार पानी बरसने लगा, विजली तड़कने लगी और घोर अन्धकार छा गया उन्हें अपने कुटुम्ब तथा विपुल सम्पत्ति की रक्षा असम्भव प्रतीत होने लगी। उनका हृदय इस विपत्ति से व्याकुल हो गया था। उस नगर में एक करमचंद नामक माहुर वैश्य रहते थे। वह खरगसैन जी से परिचित थे। उन्हें किसी प्रकार खरगसैन जी की विपत्ति का पता लग गया। वे उसी समय उनके निकट पाए और अपने गृह ले जाकर बड़े आग्रह से अपना धन धान्य से पूर्ण सारा गृह सौंप दिया और आप अन्य दूसरे गृह में रहने लगा। उस समय का वर्णन कविवर इस प्रकार करते हैं: धन बरसै पावस समै, जिन दीनों निज भौन । ताकी महिमा की कथा, मुंह सों वरंने कौन ॥ • जव तक जौनपुर में कुलीचखां का शासन रहा तब तक उक्त वैश्य महोदय ने उनको अपने गृह का स्वामी बनाकर बड़े
SR No.010269
Book TitleJain Kaviyo ka Itihas ya Prachin Hindi Jain Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchandra Jain
PublisherJain Sahitya Sammelan Damoha
Publication Year
Total Pages207
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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