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कविवर बनारसीदास
१३. mmmmmmmmmm...... .. ... ... ...... ...~~~~~~~~~ ~ ~ दिया । ग्रंथ के पत्र अलग २ होकर बहने लगे। मित्रगण हाय २ करने लगे परन्तु अब क्या होता था गोमती की गोद में से पुस्तक छीन लेने का किसका साहस था। मन मारकर सब अपने २ घर चले आए। कविवर भी अपने घर आए। आज उनके हृदय में . एक अद्भुत प्रसन्नता थी मानो उनके मन पर से एक बड़ा बोझ उतर गया था।
अपनी अमूल्य निधि को इस प्रकार एक दम ही तुच्छ समझकर फेंक देना और तत्काल ही विरक्त हो जाना रसिक शिरोमणि बनारसीदासजी का साधारण त्याग नहीं था यह उनकी उच्च आत्मा की विशेप ध्वनि थी, उनकी महानता की यह थोड़ी सी झाँकी थी। इसके अन्दर आत्म त्याग का महान परिचय था। - इस घटना से उनकी अवस्था में आश्चर्यजनक परिवर्तन हो गया अव उन्होंने एक नवीन दिशा की ओर कदम बढ़ाया।
तिस दिन सों वानारसी, करी धर्म की चाह । तजी आसिखी फासिखी, पकरी कुलकी राह ।
कविवर का जीवन अब नवीन सांचे में ही ढल गया था। मित्र मंडली के साथ गली कूचों में भ्रमण करने वाले वनारसी अब विशेष भक्ति और श्रद्धा युक्त होकर अष्ट द्रव्य से भगवान् की पूजा करने लगे थे। जिन दर्शन के बिना अब आप भोजन पान ग्रहण नहीं करते थे। व्रत, नियम, संयम स्वाध्याय में मग्न रहने लगे थे और सच्चे हृदय से सभी क्रियाएं करते थे। ।
तब अपजसी वनारसी,
अब जस भयो विख्यात.।,