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कविवर बनारसीदास
बस क्या था आप उसके प्रभाव में आ गए और उसका द्रव्य द्वारा खूब सत्कार करके सदा शिव की पूजा करने लगे। शिव शिव का एक सौ आठ बार जप भी होने लगा। पूजन और जप में आपकी इतनी शृद्धा हो गई कि उसके बिना किए आपका भोजन भी नहीं होता था। कविवर ने अपने जीवनचरित्र में उस समय के सदाशिव की पूजन को उत्प्रेक्षा और आक्षेपालंकार में इस प्रकार कहा है
शंख रूप शिव देव, महा शंख चानारसी। .दोऊ मिले अवेव, साहिन सेवक एक से॥ 'परिवर्तन
‘संवत् १६६२ के कार्तिक मास में बादशाह अकवर की आगरा में मृत्यु होगई। कविवर बनारसीदासजी अकवर की धर्म रक्षा तथा हिन्दू प्रेम पर अत्यंत मुग्ध थे। उनका हृदय विदीर्ण हो गया वे उस समय मकान के जीने पर बैठे हुए थे मृत्यु संवाद सुनते ही उनका कोमल हृदय विदीर्ण हो गया वे मूर्छित होकर नीचे गिर पड़े उनका सिर फट गया और रक्त की धारा बहने लगी। माता पिता दौड़ें आए। उपचार किया वे सचेत हुए और कुछ दिनों के उपचार के पश्चात् अच्छे हो गए। - बनारसीदासजी अब तक सदाशिव का पूजन नित्यप्रति किया करते थे एक दिन एकान्त में बैठे बैठे वे सोचने लगे। ...
जब मैं गिरयो परयो मुरझाय । तब शिव कछु नहिं करी सहाय । .