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प्राचीन हिन्दी जैन कवि
हैं। विलासी वनारसीदासजी भी ऐसे ही मंत्रवादी साधुओं के भक्त हो गए।
एक समय जौनपुर में एक सन्यासी देवता आए। ये महात्मा अपने को चांदी का सोना वना देने में सिद्धहस्त वतलाकर अनेक भोले लोगों पर अपना जादू चलाने लगे। कविवर वनारसीदासजी इनके फंदे में फंस गए, लगे सन्यासीजी की सेवा करने। सन्यासीजी ने इन्हें अनेक प्रकार की प्रलोभनाओं के जाल में फंसाना प्रारंभ किया और चांदी का सोना वनाने वाले मंत्र वतलाने का माया जाल विछाकर खूब द्रव्य ठगना प्रारम्भ किया। अंत में हजारों रुपया खर्च करके श्री वनारसीदासजी ने सन्यासीजी से वह मंत्र सीख लिया और उसका जप करना प्रारंभ किया जिस समय वनारसीदास जप करने में लगे हुए थे उसी समय मौका पाकर सन्यासीजी कहीं भाग गये। मंत्र जपते जपते एक वर्ष में पूर्ण हो गया। आज वनारसीदासजी के हर्ष का ठिकाना न था वे अपने पास कुवेर की संपत्ति आने की कल्पना में मन्न हो रहे थे लेकिन उन्हें एक फूटी कौड़ी भी नहीं मिली। तव कहीं आपकी आँखें खुली
और आपको इन वनावटी साधुओं की धूर्तता का पता लगा। अव वे ऐसे मंत्रवादी चमत्कारी साधु-सन्तों से सदा ही दूर रहने लगे। आप वेषधारी महन्तों से सदैव सचेत रहते थे किन्तु एक बार फिर एक जोगी महाराज का प्रभाव आप पर पड़ ही गया। यह जोगी महाराज अपने को सदा शिव का भक्त कहते थे इन्होंने कविवर को एक शंख तथा कुछ पूजन के उपकरण देकर कहा-यह सदाशिव की मूर्ति है इसकी पूजा से महा पापी भी शीघ्र ही शिव को प्राप्त करता है तेरे सारे पाप इसकी पूजा के प्रभाव से नष्ट हो जायेंगे और तू महा मंगल को. प्राप्त होगा।