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भैया भगवतीदास
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भयानक काली रात्रि है, मेघ बड़े जोर से गरज रहे हैं, चारों अोर बिजली कड़क रही है।
तेज ठंडी हवा के झोंको से पत्थर भी हिल उठते हैं, ओलों के ढेर के ढेर लगे हुए हैं। ऐसी भयानक दशा में जैन मुनि हिमालय पर्वत के समान पैरों को स्थिरकर ध्यान में मग्न खड़े हुए हैं और शीत की परिपह को सहन करते हैं।
उष्ण परिषह. ज्येष्ठ के महीने में कैसी विकराल गर्मी पड़ती है उसका कष्ट जैन साधु किस तरह सहन करते हैं। ग्रीषम की ऋतु मांहि जल थल सूख जाहि,
परत प्रचंड धूप आगि सी वरत है। दावा की सी ज्वाल माल बहत वयार अति,
लागत लपट कोऊ धीर न धरत है। धरती तपत मानों तवासी तपाय राखी,
वडवा अनल सम शैल जो जरत है। ताके शृङ्ग शिला पर जोर जुग पांव धार,
करत तपस्या मुनि करम हरत हैं।
गरमी के मौसम में सभी जलाशय सूख जाते हैं इस तरह प्रचंड धूप पड़ती है मानो आग ही जलती है।
प्रलय की ज्वाला की लपटों की तरह गर्म हवा चलती है जिसकी लपट लगते ही किसी का धैर्य स्थिर नहीं रह . सकता।
धरती तवे की तरह तप जाती है। पहाड़ बड़वानल की तरह जलता है। ऐसे कठिन समय में पहाड़ की चोटी की शिला पर