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प्राचीन हिन्दी जैन ऋवि
जिसने संसार के सभी प्राणियों को जीतकर अपने वश में कर लिया है जिसके प्रताप के साम्हने बड़े २ वहादुर हार गए हैं।
जिस समय यह अपने चक्कर में जीवों को घुमाती है उस समय राजा हो या भिखारी किसी को नहीं छोड़ती। उस समय
आँखों के साम्हने अँधेरा-सा छा जाता है और ज्वर-सा चढ़ जाता है।
__आग की ज्वाला के समान कलेजे को जला डालती है। जो देवताओं को भी नहीं छोड़ती। बेचारे पशु पक्षी तो क्या चीज़ हैं इस विकराल क्षुधा के जोर की कहानी कहते हुए उसका अन्त नहीं आता उस क्षुधा के जोर को जीतकर जैन साधु आत्म ध्यान में निश्चल मग्न रहते हैं।
शीत परिपहमाह के महीने में नदी के किनारे खड़े हुए जैन साधु शीत की तकलीफ को किस तरह सहन करते हैं । शीत की सहाय पाय पानी जहाँ जम जाय,
परत तुपार आय हरे वृक्ष माढ़े हैं। महा कारी निशा मांहि घोर घन गरजाहिं,
चपला हूं चमकाहि तहाँ हग गाढ़े हैं। पौन की झकोर चलै पाथर हैं तेहूं हिले, • ओरन के ढेर लगे तामें ध्यान वाढ़े हैं। कहां लौ वखान करों हेमाचल की समान, __ तहाँ मुनिराय पाँय जोर दृढ़ ठाढ़े हैं।
भयंकर शीत के कारण जहाँ पानी वर्फ की तरह जम जाता है, पाला पड़ने से हरे वृक्ष पतछड़ हो गए हैं।