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प्राचीन हिन्दी जैन कवि mmmmmmmmmmmmmrowom दोनों पैरों को स्थिर रखकर जैन मुनि तपस्या करते हैं और कर्मों . के जाल को नष्ट करते हैं।
फुटकर कविता इसमें ३३ छन्दों में अनेक विपयों पर बड़ी सुन्दर कविता की है।
एक सियार मनुष्य के मृतक शरीर के पास खड़ा है एक श्वान आकर उसको क्या उपदेश दे रहा सो सुनिए । शीश गर्व नहिं नम्यो, कान नहिं सुनै वैन सत ।
नैन न निरखे साधु, वैन तै कहे न शिवपति ॥ करते दान न दीन, हृदय कछु दया न कीनी।
पेट भरयो कर पाप, पीठ. पर तिय नहिं दीनी॥ चरन चले नहिं तीर्थ कह, तिह शरीर कहा कीजिए। इमि कह श्याल रे श्वान यह, निंद निकृष्ट न लीजिए।
श्वान कहता है:--जिसका सिर घमंड से मुका नहीं, कानों से सत्य वचन नहीं सुना, आखों से साधुओं के दर्शन नहीं किए, मुँह से भगवान का नाम नहीं लिया, हाथ से दान नहीं दिया, हृदय से कुछ दया न की, पाप करके पेट भरा, पर स्त्री को पीठ नहीं दी, और जिसके पैर तीर्थ यात्रा के लिए नहीं चले उस शरीर का क्या करेगा, ऐसे अधम और निंदित शरीर को हे सियार ! तू मत गृहण कर।
यह केवल शब्दों का प्राडम्बर नहीं है इसके अन्दर बड़ा रहस्य भरा है, सुनिये। अरिन के ठट्ट दह · वट्ट कर डारे जिन,
करम . सुभहन के पट्टन उजारे हैं।