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भैया भगवतीदास
केश के मुड़ाए कहा भेष के बनाए कहा, जोवन के आए कहा जरा हू न खैहै रे । भ्रमको विलास कहा दुर्जन में वास कहा, श्रातम प्रकाश चिन पीछे पछित है रे || यह दुनियाँ मुसाफिरखाना है। अपने अपने किए कर्मों को लेकर कोई सवेरे और कोई शाम को न मालूम कहाँ चले जायेंगे ।
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मानव शरीर के पा लेने पर पंडित कहलाकर तीर्थ स्नान करके क्या तू संसार समुद्र से तर जायगा ।
लक्ष्मी के कमा लेने और इन्द्रियों को तृप्त करने तथा छत्र को धारण करने से ही क्या तेरे शरीर को क्षीणता न आयेगी क्या यौवन के आने के बाद बुढ़ावा न आयगा ।
शिर के घुटाने और भेप के बनाने से क्या होता है और इस भ्रम के विलास दुर्जन शरीर में रहने से ही क्या हुआ । यदि तू आत्म प्रकाश न पा सका तो हे भाई! अंत में तुझे पछताना ही पड़ेगा |
पुण्य पाप जग मूल पचीसिका
इसमें पुण्य और पान की महिमा का वर्णन २५ छन्दों में किया है और अंत में दोनों को त्यागकर आत्महित करने का उपदेश दिया है । एक पद्य का नमूना देखिए ।
धागे मद माते गज पीछे फोज रही सज, देखें अरि जाय भज वसै वन वन में । ऐसे वल जाके संग रूप तो वन्यो अनंग, चमू चतुरंग लोग कहै धन धन मैं ॥
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