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प्राचीन हिन्दी जैन कवि
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थानी है के मानी तुम थिरतां विशेप इहां, __ चलवे की चिंता कळू है कि तोहि नाहिंने। धरी की खवर नाहिं सामौ सौ वरप कीजे,
कौन परवीनता विचार देखो काहिने ॥ जोरत हो लच्छ बहु पाप कर रैन दिन,
सों तो परतच्छ पाय चलवो उवाहिने। प्रातम के काज विन रज सम राज सुख,
सुनो महाराज कर कान किन दाहिने ।
इस संसार के मूल निवासी होकर तुमने यहाँ रहने में ही निश्चल स्थिरता मान ली है अरे भाई तुम्हें चलने की भी कुछ चिन्ता है या नहीं। ___एक घड़ी की तो खवर नहीं है और सामान सौ वर्ष का कर रहा है कुछ विचार कर तो देखो इसमें क्या' चतुरता है रात दिन पाप करके लाखों रुपया जोड़ते हो परन्तु यह वात प्रत्यक्ष दिखती है कि अन्त में नंगे पैर ही जाना पड़ता है।
हे भाई! आत्म उद्धार के विना यह राज्य सुख भी धूल के समान है। हे चैतन्य महाराज ! कानों को इधर करके यह वात क्यों नहीं सुनते हो।
___ यह दुनियाँ सराय हैं इसमें कितने दिन रहना है। यदि तूने श्रात्म ज्ञान प्राप्त नहीं किया तो सब करनी बेकार है।
जगत चला चल देखिए, कोउ सांझ कोऊ भोर। लाद लाद कृत कर्म को, न जानों किन्ह ओर ॥ नर देह पाये कहा पंडित कहाए कहा,
तीरथ के न्हाये कहा तिर तो न जैहै रे। लच्छि के कमाये कहा अच्छ के अधाए कहा,
छत्र के धराये कहा छीनता न ऐहै रे॥