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प्राचीन हिन्दी जैन कवि
हरिके चेतन मोह को, सूधे शिव पुर जाय। निराकार निर्मल भयो, त्रिभुवन मुकुट कहाय ॥
परमात्म शतक इसमें एक सौ छन्दों द्वारा आत्मा को संबोधित करते हुए परमात्मा के स्वरूप का बड़ा सुन्दर दिग्दर्शन कराया है।
प्रत्येक छन्द अलंकार मय सरस और मनोहर है। पोरे होहु सुजान, पीरे कारे है रहे ।
पीरे तुम विन ज्ञान, पीरे सुधा सुबुद्धि कह।
(पीरे) ऐ पिय सुजान वनो (पीरे) पीले (कारे) क्यों हो रहे हो। विना ज्ञान के तुम (पीरे) पीड़े जा रहे हो अव सुबुद्धि रूपी अमृत को (पीरे) पियो। मैं न काम जीत्यो वली, मैं नकाम रसलीन ।
मैं न काम अपनो कियो, मैंन काम आधीन ॥
मैं वलवान काम को न जीत सका मैं 'नकाम' व्यर्थ विपया शक्त ही रहा। मैंने अपना काम नहीं किया, और (मैन काम) कामदेव के आधीन ही बना रहा। तारी पी तुम भूलकर, ता रीतन रस लीन ।
तारी खोजहु ज्ञान की, तारी पति पर लीन ॥
हे पिय! तुम मोह रूपी ताड़ी का नशा पीकर उसी की रीति में लवलीन हो रहे हो । हे प्रवीण ! ज्ञान की 'ताली' खोजो जिसमें तुम्हारी (पति) लाज रहे । जैनी जाने जैन नै, जिन जिन जानी जैन ।
जे जे जैनी जैन जन, जानै निज निज नैन ॥