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________________ १६८ प्राचीन हिन्दी जैन कवि सुबुद्धि कहती है तब सुबुद्धि वोली चतुर, सुन हो कंत सुजान । यह तेरे संग रि लगे, महा सुभट चलवान ॥ कह सुबुद्धि इक सीख सुन, जो तू मानै कंत । कैतो ध्याय स्वरूप निज, कै भज श्री भगवंत ॥ मौन । सुनि के सीख सुबुद्धि की, चेतन पकरी व कुमति नाराज होकर कहती है उठी कुबुद्धि रिसायकै, यह कुल क्षयनी कौन ॥ मैं वेटी हूं मोह की, व्याही चेतन राय । कहो नारि यह कौन है, राखी कहाँ छिपाय ॥ वह अपने पिता मोह के पास जाती है और चैतन्य को शिकायत करती है मोह नाराज होकर अपने काम कुमार दूत को भेजता है । 7 तव भेजो इक काम कुमार, जो सब दूतन में का सरदार । कै तो पांय पर तुम आय, कै लरिवे को रहहु सजाय ॥ चैतन्य उत्तर देता है ! कर व सवारी वेग, मैं भी बांधी तुम पर तेग । चैतन्य का उत्तर सुनकर मोह राजा चढ़ाई करता है । www सुन के राजा मोह, कीनी कटकी जीव पै 1 अहो सुभट सज होय, घेरो जाय गंवार को ॥ सज सज सब ही शूर, अपनी अपनी फौज ले । आए मोह हजूर, प्रभु दिग्दर्शन कीजिए ॥ राग द्वेष दो बड़े वजीर, महा सुभट दल थंभन वीर । दोनों सेनापति आठों कर्मों की फौज सजाकर चल दिए ।
SR No.010269
Book TitleJain Kaviyo ka Itihas ya Prachin Hindi Jain Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchandra Jain
PublisherJain Sahitya Sammelan Damoha
Publication Year
Total Pages207
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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