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प्राचीन हिन्दी जैन कवि
सुबुद्धि कहती है
तब सुबुद्धि वोली चतुर, सुन हो कंत सुजान । यह तेरे संग रि लगे, महा सुभट चलवान ॥ कह सुबुद्धि इक सीख सुन, जो तू मानै कंत । कैतो ध्याय स्वरूप निज, कै भज श्री भगवंत ॥ मौन ।
सुनि के सीख सुबुद्धि की, चेतन
पकरी
व कुमति नाराज होकर कहती है
उठी कुबुद्धि रिसायकै, यह कुल क्षयनी कौन ॥ मैं वेटी हूं मोह की, व्याही चेतन राय । कहो नारि यह कौन है, राखी कहाँ छिपाय ॥
वह अपने पिता मोह के पास जाती है और चैतन्य को शिकायत करती है मोह नाराज होकर अपने काम कुमार दूत को भेजता है ।
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तव भेजो इक काम कुमार, जो सब दूतन में का सरदार । कै तो पांय पर तुम आय, कै लरिवे को रहहु सजाय ॥ चैतन्य उत्तर देता है ! कर व सवारी वेग, मैं भी बांधी तुम पर तेग । चैतन्य का उत्तर सुनकर मोह राजा चढ़ाई करता है ।
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सुन के राजा मोह, कीनी कटकी जीव पै 1 अहो सुभट सज होय, घेरो जाय गंवार को ॥ सज सज सब ही शूर, अपनी अपनी फौज ले ।
आए मोह हजूर, प्रभु दिग्दर्शन कीजिए ॥ राग द्वेष दो बड़े वजीर, महा सुभट दल थंभन वीर । दोनों सेनापति आठों कर्मों की फौज सजाकर चल दिए ।