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प्राचीन हिन्दी जैन कवि
इस परदेशी शरीर का क्या विश्वास ? जब मन में आई तव चल दिया न सांझ गिनता हैं न सवेरा। दूर देश को खुद ही चल देता है कोई रोकने वाला नहीं इससे कोई कितना ही प्रेम करे आखिर यह अलग हो जाता है।
धन में मस्त होकर धर्म को भूलता है और मोह में झूलता है सच्चे सुख को छोड़कर भ्रम की शराब पीकर मतवाला हुया अनंत काल से घूम रहा है। भाई ? चेतन तू चेत अपने आपको सँभाल । इस परदेशी का क्या विश्वास ? ___घट में ही परमात्मा है । सुनिए। या घट में परमात्मा चिन्मूरति भइया ।
ताहि विलोकि सुदृष्टि सो पंडित परखैया । ज्ञान स्वरूप सुधामयी, भव सिन्धु तरैया।
तिहूँ लोक में प्रगट है, जाकी ठकुरैया ॥ श्राप तरै तारें परहिं, जैसे जल नैया ।
केवल शुद्ध स्वभाव है, समझे समझेया॥ देव वहै गुरु है वहै, शिव वह वलइया।
त्रिभुवन मुकुट वह सदा, चेतो चितवइया |
भाई परमात्मा को कहां खोजते हो शुद्ध चष्टि से देखो वह इस घट में ही हैं। हे पंडित! उसकी परख करो।
वह ज्ञान अमृत मई संसार से पार होकर नाव की तरह दूसरों को भी पार करने वाला है। तीन लोक में उसकी वादशाहत है। शुद्ध स्वभाव मय है उसको समझदार ही समझ सकते हैं। वही देव, गुरु मोन का वासी और त्रिभुवन का मुकुट है। हे चेतन चेतो, अपने को परखो।