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प्राचीन हिन्दी जैन कवि
मूर्ख प्राणी ! देह को जल से पवित्र कर के आत्मा का पवित्र होना मानते हैं वह मिथ्या भ्रम में ही भूले हुए हैं।
कुल के प्राचार विचार को ही धर्म जानते हैं और पाप कर्म के उदय से कन्द मूल खाकर ही पुण्य समझते हैं। वह सिर के धुटाने से, देह के जलाने से और रात्रि को खाने से ही जीव की मुक्ति होना मानते हैं। असत्य के हथियार को रखने वाले वे मूर्ख ! देव और शास्त्र के रहस्य को नहीं जानते हैं ऐले अविवेकी होकर भी अपने को आत्म ज्ञानी मानते हैं वे सत्य का रहस्य कैसे जान सकते हैं।
ज्ञानी श्रात्म मुक्ति कैसे प्राप्त करता है इसका शब्दालंकार पूर्ण वर्णन सुनिए। कटाक कर्म तोरि के छटाक गांठ छोर के,
पटाक पाप मोर के तटाक दै मृपा गई। चटाक चिन्ह जानिके, झटाक हीय श्रान के,
नटाकि नृत्य भान के खटाकि नै खरी ठई ।। घटा के घोर फ़ारिके तटाक बंध टार के,
श्रटा के राम धारक रटाक राम की जई । गटाक शुद्ध पान को हटाकि श्रान श्रान को, .
घटाकि श्राप थान को सटाक श्यो वधू लई ॥
कर्मों के जाल को कटाक से तोड़कर भट पट मोह की गांठ खोलकर पाप के भार को पटककर असत्य को फौरन ही हटा दिया।
चटपट ही आत्मा को जानकर अटपट ही हृदय में धारण कर संसार नाटक के नृत्य को भंगकर तुरंत ही शुद्धात्मनय की पताका खड़ी कर दी।