________________
१५६
प्राचीन हिन्दी जैन कवि
तेरी छींक सुनै जिते, करै न उत्तम काज । मूदै तुह दुर्गध में, तऊ न आवै लाज ॥ वृषभ ऊँ नारी निरख, और जीव जग माहिं । जित तित तो को छेदिये, तोऊ लजानो नाहिं ॥
कानन कुंडल झलकता, मणि मुक्ता फल सार । जगमग जगमग है रहै, देखै सव संसार ॥ सातों सुर को गाइवो, अद्भुत सुखमय स्वाद । इन कानन कर परखिए, मीठे मीठे नाद ॥ कानन सरभर को करै, कान बड़े सिरदार । छहों द्रव्य के गुण सुने, जानै सवद विचार ॥
कान जब अपनी प्रशंसा के पुल बाँध चुका तब आँख घवड़ा उठी वह बड़ी तेजी के साथ सँभल कर क्या कहती है इस पर ध्यान दीजिए। .
आँख कहै रे कान तू, इस्यो करै अहँकार । मैलनि कर मुंद्यो रहै, लाजै नहीं लगार ॥ भली बुरी सुनतो रहै, तोरै तुरत सनेह । तो सम दुष्ट न दूसरो, धारी ऐसी देह ।। पहिले तुम को वेधिए, नर नारी के कान । तोहू नहीं लजात है, बहुरि धरै अभिमान ॥ काननं की वात सुनी, साँची झूठी होय । आँखन देखी बात जो, तामें फेर न कोय ॥ इन आँखन त देखिए, तीर्थकर को रूप । आँखन तै लखिए सवै, नाना रङ्ग अनूप ॥
आँख अपनी करामात कह चुकी अब जीभ की बारी आई वह भड़ककर क्या वोलती है इसका भी थोड़ा अनुभव कीजिए।