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भैया भगवतीदास
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जीभ कहै रे आँखि तू, काहे गर्व कराय । काजल कर जो रगिए, तोह नाहिं लजाय ॥ कायर ज्यों डरती रहै, धीरज नहीं लगार। पात बात में रोय दे. बोले गर्व अपार ॥ जहां तहाँ लागत फिरै, देख सलोनो रूप । तेरे ही परसाद ते, दुख पावै चिद्रप॥
जीभ कहै मोत सवै, जीवत है संसार। पट रस भंजो स्वाद ले, पालो सब परिवार ॥ मोविन आँख न खुल सके, कान सुनै नहिं चैन। नाक न बास को, मोविन कहीं न चैन । दुरजन से सजन करे, वोलत मीठे बोल । ऐसी कला न और पै, कौन आँख किंहतोल ॥
जीभ जव अपना भापण समाप्त कर चुकी तब शरीर सँभल कर क्या कहता है यह भी ध्यान देने योग्य है ।
फर्स कहै री जीभ तू, एतो गर्व करत । तुझ से ही झूठो कहैं, तो हू नहीं लजंत ॥ कहै वचन फर्कस बुरे, उपजै महा कलेश । तेरे ही परसाद ते, भिड़-भिड़ मरै नरेश ॥ झूठे ग्रन्थनि. तू पढ़े, दे झूठो उपदेश । तेरे ही रस काज जग, संकट सहै हमेश ॥
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नाक, कान, नैना, सुनो, जीभ रहा गर्वाय । सब कोऊ शिर नायके, लागत मेरे पाय ॥ झूठी झूठी सब कहै, सांची कहै न कोय । बिन काया से तप तपै, मुक्ति कहाँ सों होय ॥